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तृतीय अध्ययन तृतीयोदेशक ]
[ २४६
जो वर्तमान अवस्था है वही रहने की है तो दुखी पुरुष सुख के लिए पुरुषार्थ ही क्यों करेगा? वह जानता है कि मैं तो सदा दुखी ही रहने वाला हूँ तो धर्म-क्रिया आदि से मुझे क्या प्रयोजन ? दुख तो है ही और दुखी रहना ही है तो पापकर्म क्यों न करूँ ? इसी तरह सुखी व्यक्ति यह सोचेगा कि मैं चाहे जैसे कार्य करूँ, मैं तो सुखी ही रहने वाला हूँ तो फिर तपश्चरणादि शुभ क्रियाएँ क्यों करूँ ? इस प्रकार परम पुरुपार्थ का ही अभाव हो जाता है। अगर उनका यह कथन स्वीकार कर लिया जाय तो धर्म-कर्म का अभाव हो जायगा ।
प्रत्यक्ष से, उनके माने हुए इस कथन में दोष आता है । प्रतिदिन के व्यवहार में हम देखते हैं कि आज जो बाह्य-दृष्टि से सुखी है, धन-धान्यादि से सम्पन्न है वही थोड़े समय बाद दर-दर का भिखारी बना हुआ दिखाई देता है साथ ही जो एक दिन दाने-दाने के लिए मुहताज था वह लाखों का स्वामी होता हुआ भी दिखाई देता है । यहीं मनुष्य की अवस्थाओं का परिवर्तन होता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है तो परलोक में वैसा का वैसा रहेगा यह कैसे मान्य हो सकता है ? अतः उनकी यह मान्यता, अज्ञानमूलक है।
कर्मवाद के सुव्यवस्थित सिद्धान्त को नहीं समझने के कारण वे प्राणी इस प्रकार मिथ्या कल्पनाओं का जाल बनाकर दूसरे प्राणियों को उसमें फँसाते हैं और स्वयं भी फँसते हैं।
जो तथागत- यथार्थतत्त्वदर्शी होते हैं वे इस प्रकार नहीं मानते हैं। उनका कर्मवाद का अविचल सिद्धान्त यह कहता है कि कोई क्रिया निष्फल नहीं हो सकती । उसका अच्छा या बुरा परिणाम अवश्य उसके कर्त्ता को प्राप्त होता है। चाहे शीघ्र मिल जाय या देरी से मिलेगा जरूर। प्राणी जब शुभ क्रियाएँ करता है तो उसका शुभ फल अवश्य उसे प्राप्त होता है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि एक व्यक्ति fire दानादि शुभ क्रियाएँ करता है तदपि वह दुखी है और एक व्यक्ति नित्य चोरी करता है, गरीबों के
काटता है और धर्मकर्म कुछ नहीं मानता तो भी वह सुखी है, ऐसा क्यों ?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि क्रिया तो अवश्यमेव कर्त्ता को ही प्राप्त होती है। लेकिन कर्म जब उदयावलिका में आते हैं तब वे अपना शुभाशुभ फल बताते हैं । जब तक शुभ कर्मों का उदय नहीं होता है और अशुभ कर्मों का उदय होता है तब तक प्राणी दुख का अनुभव करता है। इसका अर्थ यह नहीं कि उसके किये हुए सब शुभकार्य व्यर्थ हुए। उसके किये हुए शुभकर्म जब उदयावलिका में आएँगे तब उसके दुख हट जाएँगे और सुख की प्राप्ति होगी। इसी तरह जब तक शुभकर्म उदय में हैं तब तक पाप करते हुए भी सुख का अनुभव करलें परन्तु जब पापकर्म उदद्यावलिका में श्रावेंगे तब उसे अवश्य उनका कटुक फल भोगना पड़ेगा । कर्म का सिद्धान्त अविचल और अकाट्य है। कर्मों की विचित्रता के कारण 'प्राणी सुखी और दुखी हो सकता है।
कर्मवाद का सिद्धान्त जीवात्माओं को पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। यह सिद्धान्त सिखाता है कि हे पुरुषो ! तुम अपने ही कर्मों से परमेश्वर बन सकते हो और अपने ही कर्मों से दीन और हीन । • कर्मवाद मनुष्यों के सामने मुक्ति का अनुपम आदर्श उपस्थित करता है जिसे प्राप्त करने के लिए प्राणी 'पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित होता है । कर्मवाद स्पष्ट चेतावनी देता है कि हे जीवो ! तुम्हारे कार्यों पर ही सुख-दुख निर्भर हैं । सुखी होना चाहते हो- शुभकार्य करो और दुख में सड़ना पसन्द हो तो वैसे कर्म करने के लिए तुम स्वतंत्र हो ।
तात्पर्य यह है कि तत्वदर्शी पुरुष कर्मों के अनुसार भूत और भविष्य का विचार करते हैं और कर्मों को तोड़ने का पुरुषार्थ करते हैं ।
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