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४५६ ]
[आचाराङ्ग-सूत्रम् लेकिन वे भोगियों को भोग लेते हैं। कहा है-"भोगा न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः।" जिस तरह अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त नहीं हो सकती उसी तरह भोग भोगने से शान्त नहीं हो सकते । इसलिए भोगी प्राणी भोगों से अतृप्त होकर ही मृत्यु को प्राप्त करते हैं । उनकी स्थिति "इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः" वाली हो जाती है । इसलिए सूत्रकार यह फरमाते हैं कि पूर्वाध्यासों के वश में नहीं होना चाहिए। साधकों को अपनी ली हुई प्रतिज्ञा का व अपने त्याग के उद्देश्य का बराबर ध्यान रखना चाहिए और प्राणान्त तक अपनी ली हुई प्रतिज्ञा पर अविचल टिके रहने का दृढ़ संकल्प करना चाहिए।
अहेगे धम्ममादाय आयाणपभिइसु पणिहिए चरे, अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गिद्धिं परिन्नाय एस पणए महामुणी, अइअच्च सव्वश्रो संगं न महं अस्थ त्ति इय एगो अहं, अस्सिं जयमाणे इत्थ विरए प्राणगारे सव्वश्रो मुण्डे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिक्खइ प्रोमोयरियाए। . संस्कृतच्छाया-अथके धर्ममादाय आदानप्रभृतिषु प्रणिहिताश्चरेयुः अप्रलीयमाना दृढाः, सी गृद्धिं परिनाय एषः प्रणतः महामुनिः, अतिगत्य सर्वतः सङ्गं न ममास्ति इति इह एकोऽहं अस्मिन्यतमानः, अत्र विरतः अनगारः सर्वतो मुण्डो रीयमाणः यः अचेलः पर्युषितः सतिष्ठतेऽवमौदर्ये ।
शब्दार्थ-अहेगे-कितनेक साधक । धम्मं धर्म को। आदाय स्वीकार करके । आयाणप्पभइसु धर्मकरण में अथवा दीक्षा के प्रारम्भ से ही । पणिहिए सावधान होकर । अपलीयमाणे प्रपञ्च में नहीं फंसते हुए । दढे दृढ होकर । चरे=धर्म का पालन करते हैं। सव्वं= सब । गिर्द्धि आसक्ति को। परिनाय जानकर व छोड़कर। पणए संयम में रत रहते हैं। एस= वह । महामुणी महा मुनि हैं । सव्वाश्रो सब तरह से । संग=अपञ्च को। अइअञ्च–छोड़कर । न महं अत्थि=मेरा कोई नहीं है। इय एगो अहं मैं अकेला हूँ यह विचार कर । अस्सि इस प्रवचन में । विरए सावध अनुष्ठान से विरत होकर । जयमाणे-दश प्रकार की समाचारी में यतना करते हुए। अणगारे अनगार। सव्वो मुण्डे द्रव्यभाव से मुण्डित होकर । रीयंते= संयम में विचरते हुए । जे अचेले जो अचेल होकर । परिवुसिए संयम में उद्यतविहारी हो। श्रोमोयरियाए-मिताहारी । संचिक्खइरहते हैं।
भावार्थ-कितनेक भव्यपुरुष धर्म को प्राप्त करके त्याग अंगीकार करके प्रथम ही से धर्मकरण में सावधान रहकर किसी प्रकार के प्रपंच में नहीं फँसते हुए व्रत में दृढ रह कर धर्म का पालन करते हैं । जो पुरुष सभी तरह की आसक्ति को दुखमय जानकर उससे दूर रहते हैं वे ही संयमी महामुनि हैं। इसलिए साधक सभी प्रपचों को दूर करके "मेरा कोई नहीं है और मैं अकेला हूँ" यह एकान्त भावना रखकर पापक्रिया से निवृत्त होकर संयम में उपयोगपूर्वक यत्न करते हुए सब प्रकार से मुंडित होकर
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