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तृतीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
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“सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः"
अर्थात् — जीव कषाय के योग से कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है वही बन्ध है । इससे स्पष्ट है कि बन्ध में कषायों की प्रमुखता है । कषाय आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करते हैं व इनका स्वरूप समझ कर त्याग करना चाहिए।
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कषाय के मुख्य चार भेद हैं जिनका शास्त्रकार ने सूत्र में उल्लेख किया है: - ( १ ) क्रोध (२) मान ( ३ ) माया और ( ४ ) लोभ ।
उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वमाश्रयम् । क्रोधः कृशानुवत्पश्चादन्यं दहति वा न वा ॥
क्रोध - क्रोध नामक चारित्र - मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला, उचित-अनुचित का विवेक नष्ट कर देने वाला, प्रज्वलनरूप श्रात्मा का परिणाम क्रोध कहलाता है। क्रोध विवेकरूपी दीप को नष्ट कर देता है । इस अवस्था में जीव ऐसा बेभान हो जाता है कि वह पागल की भांति अनर्गल बोलने लगता है। और दुष्कृत्य कर बैठता है । क्रोध में मनुष्य अपने आपको भूल जाता है। क्रोध के आवेश में मनुष्य ऐसे कुकृत्य कर डालता है जिनका उसे क्रोध के शान्त होने पर बहुत पश्चात्ताप होता है। इतना ही नहीं लेकिन क्रोधावेश में ऐसे भी कार्य हो जाते हैं जो बहुत पछताने पर भी फिर नहीं सुधर सकते । क्रोधी मनुष्य व्यक्ति का ही नहीं परन्तु देश के देश का नाश कर देता है। दूसरों के नाश के साथ ही साथ क्रोधी मनुष्य अपना भी घोर अनिष्ट कर बैठता है । क्रोध के कारण कई मूढ़ लोग अपने जीवन का अन्त कर डालते हैं । कोई कूप में गिर पड़ता है, कोई जल मरता है । इस तरह क्रोध आत्म हत्या के रूप में भी परित होता है । क्रोध के विषय में कहा है:
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अर्थात् जिस प्रकार अनि चाहे अन्य को जलावे या न जलावे लेकिन अपने श्राश्रय स्थान को तो अवश्य जलाती है उसी तरह उत्पन्न हुआ क्रोध अपने आश्रय अन्तःकरण को तो अवश्य जलाता है; चाहे दूसरों को हानि पहुँचावे या न पहुँचावे । तात्पर्य यह हुआ कि क्रोधी अपनी हानि तो करता ही है । उसका अन्तःकरण कोयले की तरह जलता रहता है । यह शान्ति और समभाव का बाधक है अतः इसका निग्रह करना चाहिए |
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मान - मान नामक मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला, जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप, तप, आदि का अहंकार रूप आत्मा का विभाव परिणाम मान कहलाता है । इस कषाय के वशीभूत होकर जीव आदरणीय पुरुषों का आदर नहीं करता, गुणियों के गुण का सन्मान नहीं करता और उसके अन्तःकरण से नम्रता का गुण चला जाता है । इस कषाय के वशीभूत होने से संसार में अनेक तरह के कलह और युद्ध देखने में आते हैं । अभिमान के कारण भी पुरुष अंधा हो जाता है । उस पर एक प्रकार का नशा चढ़ जाता है जिसके मद में वह अपने स्वरूप को भूल जाता है । श्रभिमानी मनुष्य अपने आपको बड़ा मानकर अन्य का तिरस्कार करता है किन्तु दुनियाँ की दृष्टि से वह हीन समझा जाता है। दुनियाँ में एक से एक बढ़कर बलवान्, धनवान्, विद्वान पुरुष विद्यमान हैं उनकी ओर दृष्टिपात करने से यह अभिमान का नशा नहीं ठहर सकता है । श्रभिमानी व्यक्तियों की कभी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती । उनका यह अभिमान दूसरों की हित- शिक्षा नहीं सुनने देता है अतएव अभिमानी का कल्याण भी दुष्कर है। मुमुक्षुत्रों को इसका त्याग करना चाहिए। माननिग्रह से सच्चा मान मिलता है।