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[ाचाराग-सूत्रम्
भावार्थ-हे साधको ! जो विचारवान् श्रद्धालु साधक हैं उन्हें चाहिए कि जो असत्य दृष्टि वाले और अविचारी हैं उन्हें इस प्रकार सत्यविचारणा के लिए प्रेरित करें कि हे पुरुषो ! सत्य की ओर दृष्टि करो क्योंकि सत्य की ओर प्रवृत्ति करने से ही कर्म का-संसार का सम्पूर्ण क्षय हो सकता है । हे साधको ! श्रद्धावान् और गुरुकुल में रहने वाले साधकों की उत्तम गति और पदवी को देखो और शिथिलाचारी पार्श्वस्थो की अधम गति को बराबर देखो। यह जानकर अपने आपको बालजनाचरित असंयम में स्थापन न करो।
विवेचन-पहले श्रद्धालुओं के भंग का वर्णन करके अब सूत्रकार यहाँ यह कहते हैं कि जो श्रद्धालु हैं-जागृत हैं उनका दूसरों के प्रति क्या कर्त्तव्य हो जाता है । जो जागृत है उसका कर्त्तव्य यह है कि वह दूसरों को भी जागृति की प्रेरणा करे। जो जागृत है उस पर दूसरों को जागृत करने की जवाबदारी भी है । जो साधक अागम के रहस्य का वेत्ता है, यथास्थित पदार्थ का ज्ञाता है, जो सम्यग् असम्यग् का निर्णय करने में विचक्षण है वह दूसरों को-गड़रिये के प्रवाह के समान लकीर के फकीरों को इस प्रकार समझावे कि हे साधको ! सत्य की ओर प्रवृत्ति करो। जिस प्रकार सरोवर किसी की तृषा को शांत करने के लिए उसके पास नहीं जाता है किन्तु जो तृषातुर होकर उसके पास आता है उसकी वह शीतल जल से प्यास बुझाता है इसी प्रकार जो व्यक्ति शंकाओं और विकल्पों को लेकर जागृत साधक के पास
आता है तो उसका कर्त्तव्य है कि वह उसकी शंकाओं का समाधान करे। उसकी उलझी हुई समस्या को सुलझावे । अनुभवी साधक इतने उदार होते हैं कि वे दूसरों को भी अपनी जागृति का प्रसाद चखाते हैं ।
यह निश्चित बात है कि सत्य की ओर प्रवृत्त हुए बिना कर्म का अन्त नहीं हो सकता। अतएव हे साधको ! अगर कर्मक्षय करके संसार का अन्त करना चाहते हो तो सत्य की ओर-संयम की ओरप्रवृत्ति करो। अनुभवी-साधक अन्य को यह उपदेश करते हैं कि देखो जो साधक श्रद्धाशील हैं एवं गुरुकुल में रहने वाले हैं वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निष्प्रकम्प बनते हैं, ज्ञान के भण्डार बनते हैं और सकल संसार के यश के भागी होते हैं। परलोक में भी स्वर्ग और अपवर्ग रूप उत्तम गति को प्राप्त करते हैं इसके अतिरिक्त जो विकल्पों में पड़े रहकर शंकाशील होते हैं-संयम में सीदाते हैं शिथिलाचारी होते हैं वे अधम गति और अधम अवस्था को प्राप्त करते हैं। इन दोनों स्थितियों का विचार करके जो तुम्हें रुचे उस मार्ग पर चलो । अनुभवियों का काम अन्य को जागृत-सूचित कर देने का है। उसके अनुसार प्रवृत्ति करना या न करना यह तो उस व्यक्ति के हाथ की बात है। अनुभवी अन्य को सत्य की चेतावनी कर देते हैं वे यह आग्रह नहीं करते कि तुझे यह मानना ही पड़ेगा। मानना या न मानना यह तो व्यक्ति का काम है । महानुभाव अनुभवी पुरुष सत्य से लाभ और असत्य से हानि-ये दोनों बात जगत् के सामने रख देते हैं । जिसे जो पसन्द आवे ले ले। : इतना कह देने के बाद सूत्रकार यह बताते हैं कि दूसरों को समझाने जाते हुए साधक कहीं स्वयं गफलत में न पड़ जाय । इसलिए उसको वे सावधान करते हैं कि देखना! सावधान रहना । अश्रद्धालुओं को समझाने जाते हुए स्वयं श्रद्धा को न खो बैठना । अन्य शंकाशील प्राणी जैसे असंयम का पाचरण करते हैं उस तरह तू भी असंयम में न फंस जाना । बाल-अज्ञानी-जीवों की भांति असदनुष्ठान न करने लगना । इससे यह प्रतीत होता है कि अनुभवी साधक स्वयं श्रद्धाशील होता है और विशेष श्रद्धा के साथ वह अन्य को भी इस मार्ग पर लाता है।
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