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तृतीय अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
[ २२७
उसके जीवन में समभाव, क्रोधादि कषायों की शान्ति, इन्द्रिय एवं मन का शमन होना, सतत विवेकशीलता, उपयोगमयता, विवेकबुद्धि की जागृति और सतत पुरुषार्थ इत्यादि गुण सहज ही आ जाते हैं। ऐसा व्यक्ति ही पदार्थों के संसर्ग में रहता हुआ निरासक्त रह सकता है। ऐसे व्यक्ति का एक क्षण भी आत्मलक्ष्य से भिन्न नहीं हो सकता। इसकी प्रत्येक क्रिया इसी लक्ष्य के अनुकूल होती है। इसकी एक भी क्रिया श्रात्म प्रकृति से विरुद्ध नहीं हो सकती। इसके लिए जीवन और मृत्यु दोनों एक समान होते हैं। इसे अपने कार्यों का अभिमान नहीं होता । अहंवृत्ति से यह दूर रहता है। प्राकृतिक नियमानुसार उसके जीवन का स्रोत निरन्तर आगे बढ़ता रहता है। ऐसा व्यक्ति ही पदार्थों के संसर्ग में भी अनासक्त रह सकता है। जिस प्रकार समुद्र का जल खारा होता है और दिनरात समुद्र के खारे जल में ही रहने वाली मछली में मिठास होती है अर्थात् खारे जल में से भी मछली मिठास ग्रहण कर लेती है इसी प्रकार जिस का ध्येय मोक्ष है तथा तदनुसार ही जो प्रवृत्ति करता है वह संसार के पदार्थों के खारेपन में से भी आध्यात्मिक मिठास ही ग्रहण करता है। पूर्वोक्त समभावादि गुणों से युक्त होकर वह यावज्जीवन संयम के मार्ग में आगे बढ़ता रहता है। कर्मों को तोड़ना बच्चों का खेल नहीं है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धात्मक बन्ध, उदय और सत्ता रूप से व्यवस्थित मूल और उत्तर प्रकृति वाले कर्मों की बद्ध, पृष्ट, नित्त और निकाचित्त अवस्थाओं का क्षय अल्पकाल ही में होना दुःशक्य है अतएव वह यावज्जीवन पण्डितमरण की आकांक्षा से संयम की आराधना करता रहता है। संयमी पुरुषों के मरने और जीने का ध्येय एक होता है अतः उनके लिये जीवन और मरण तुल्य ही है। वे मरण की चिन्ता किये बिना कालक्रम से कर्म-क्षय करते हुए आगे बढते रहते हैं ।
बहुं च खलु पावकम्मं पगडं, सच्चम्मि धिदं कुव्वह एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसइ ।
संस्कृतच्छाया — बहु च खल पापकर्म्म प्रकृतं, सत्ये धृतिं कुरुध्वम् अत्रोपरत: मेधावी सर्व पापकोषयति ।
शब्दार्थ - बहुं च खलु निश्चय ही बहुत । पावकम्मं पापकर्म । पगडं किए, यह सोचकर | सच्चम्मि= संयम में । धिडं कुव्वह = दृढ़ता धारण करो । एत्थोवरए = संयम में लीन रहे हुए | मेहावी = बुद्धिमान् । सव्वं पावं कम्मं - सभी पापकर्मों को । झोसह नष्ट कर देता है ।
भावार्थ — ( हे साधको ! संयम के मार्ग में आगे बढते हुए यदि तुम्हें वृत्तियां ठगे तो ) “पहिले बहुत पापकर्म किये हैं" ऐसा विचार कर अब तुम सत्यमार्ग में अधिक से अधिक धैर्य धारण करो । संयम में लीन रहे हुए बुद्धिमान् साधक सभी दुष्ट कर्मों का नाश कर देते हैं ।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में त्यागमार्ग में दृढ़ता रखने का कहा गया है। इसके पूर्ववर्ती सूत्र में यह कहा गया है कि जो कर्म-भेद का ज्ञाता होता है, जिसे मोक्षमार्ग की तमन्ना है, जो सदा उपयोगशील और विवेक सम्पन्न है वह पदार्थों के संग में भी निर्लेप रह सकता है। इस सूत्र में यह कहते हैं कि पूर्वाध्यासों की प्रबलता के कारण जिनकी वासना और लालसा के संस्कार जागृत होने के बारबार प्रसंग आते हैं उनको उचित है कि वे त्यागमार्ग का आश्रय लें। उन्हें संग से दूर रहना अधिक उचित है ।
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