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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
ऐसा योग्य साधक जिनेन्द्र आज्ञा के द्वारा लोक के स्वरूप को भलीभांति जानता है । यहाँ लोक शब्द का अर्थ षड्जीवनिकायात्मक अथवा कषायात्मक लोक से है । कषायों का स्वरूप और उसके अनिष्ट परिणाम तथा षट्का का यथावत् स्वरूप और उनका संयम जो जानता है वह निर्भय बन जाता है । न उससे किसी को डर है और न उसको किसी से डर है । वह सच्चा अहिंसक है | अहिंसक स्वयं निर्भय हता है और जो निर्भय होता है वही दूसरों को निर्भय बना सकता है ।
भय, सदा शस्त्रों से हुआ करता है । असंयम शस्त्ररूप है अतएव भयरूप है । द्रव्य-शस्त्र तलवार आदि हैं। उनमें तरतमता पायी जाती है। कोई तलवार तीक्ष्ण होती है, कोई उससे भी अधिक तीक्ष्ण और कोई मन्द होती है । इसी तरह भाव-शस्त्र असंयम में तरतमता है। किसी का असंयम विशेष है, किसी का मंद है। कोई वासना तीव्र होती है कोई मंद होती है इस प्रकार विविधता है परन्तु शस्त्र में आत्मा की सहज दशा में इस प्रकार कुछ नहीं होता ।
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एक मनुष्य क्रोध से, दूसरा अभिमान से, तीसरा घृणा से, चौथा विषयासक्ति से, पाँचवाँ लोभ से इस प्रकार विविध रूप से आत्म-धर्म का हनन कर सकता है। इस क्रोध, मान, घृणा, लोभ और विषयासक्ति में भी अनेक कारणों से तरतमता होती देखी जाती है । परन्तु आत्मा के सहज स्वभाव समभाव में यह भेद नहीं होता है। यह सभी स्थितियों में एक-सा रहता है । क्रोधी व्यक्ति भी किसी पर क्रोधी और किसी पर स्नेही यों विविध बनता है परन्तु समभावी तो शत्रु और मित्र पर छोटे और बड़े पर, एक समान अमृत-मय प्रेम बरसाता है । वह पृथ्वीकाय के सूक्ष्म जीवों पर भी वही प्रेम बरसाता है जो इन्द्र पर । सारांश यह है कि पतन में विविधता और तरतमता है । श्रात्मा की सहज स्थिति में विकास में कोई भेद नहीं हैं।
अथवा संसार में एक शस्त्र से बढ़कर दूसरा शस्त्र है। एक पीड़ा से दूसरी पीड़ा उत्पन्न होती है जैसे - तलवार के प्रवाह से वात का प्रकोप, वातप्रकोप से सिर दर्द । उससे ज्वर, ज्वर से मूर्छा, मुख सूखना आदि रोग उत्पन्न होते हैं । भाव-शस्त्र भी एक से एक बढ़कर हैं और एक से एक उत्पन्न होता है परन्तु संयम रूप अशन में इस प्रकार का भेद नहीं है । संयम से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ नहीं है । श्रतः संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए।
जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदंसि जे पिज्जदंसि से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गन्भदंसी, जे गन्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी । से मेहावी अभिनिवट्टिजा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पिज्जं च दोसं च मोहं च गव्भं च जम्मं च नारं च नरयं च तिरियं च दुक्खं च । एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंत करस्स श्रयाणं निसिद्धा सगडन्भि किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ ? नत्थि त्ति बेमि ।
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