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षष्ठ अध्ययन पञ्चम उद्देशक ]
[ ग
संकट के उपस्थित होने पर मुनि साधक जरा भी विचलित न हो। वह पहाड़ की तरह अडोल रहकर परीषह - उपसर्गों को सहन करे । वह यह समझे कि ये उपसर्ग देने वाले अपनी वृत्तियों के अधीन होकर ऐसा करते हैं इसमें इन बेचारों का क्या दोष ? मेरे कर्मों का ही ऐसा परिणाम है यह समझ कर किसी परद्वेष या रागभाव न लाता हुआ, समतापूर्वक कष्ट सहन करना ही मुनिसाधक का कर्त्तव्य है । कोई पूजे या मारे, कोई सत्कार करे या तिरस्कार करे, भिक्षा आदि मिले या न मिले, अनुकूल परिस्थिति हो या प्रतिकूल हो, सच्चा साधक कभी राग-द्वेष के वश नहीं होता, उस पर उसका अच्छा या बुरा असर नहीं होता । उसकी दृष्टि तो सत्य, संयम की ओर ही रहती है अतः वह प्रत्येक परिस्थिति से सत्य और संयम के साधक अंशों को ही ग्रहण करता है । वह वीर-धीर साधक समभावपूर्वक उपसर्गों को सहन करता हुआ प्रगति के पथ पर प्रयाण करता रहता है।
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श्रो समियदंसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं, पडीणं, दाहिणं, इक्खे, विभए किट्टे वेयवी । से उट्ठिएसुवा, अणुट्ठिएसुवा, सुस्सूसमाणेसु पवेयए संतिं विरइं उवसमं, निव्वाणं सोयं प्रज्जवियं मद्दवियं लाघतियं प्रणइवत्तियं । सव्वेसिं पाषाणं, सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं सत्ताणं, सव्वेसिं जीवाणुवी भिक्खू धम्ममाइक्खिज्जा ।
संस्कृतच्छाया - ओजः समितदर्शनः, दयां लोकस्य ज्ञात्वा प्राचीनं प्रतीचीनं, दक्षिणमुदी - चीनमाचक्षीत कीर्त्तयेद्वेदवित् । स उत्थितेषु वा अनुत्थितेषु वा शुश्रूषमाणेषु वा प्रवेदयेत् शान्ति, विरतिं, उमशमं, निर्वाण, शौचं आर्जवं मार्दव, लाघवमनतिपत्य । सर्वेषां प्राणिनाम्, adri भूतानां सर्वेषां सत्वानां सर्वेषां जीवानामनु विचिन्त्य भिक्षुः धर्ममाचक्षीत |
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शब्दार्थ — ए = रागद्वेष रहित । समिदंसणे - सम्यग्दृष्टि या समदृष्टि | वेयवी= शास्त्रों का ज्ञाता मुनि | लोगस्स दयं जाणित्ता = प्राणियों पर दया करके | पाई = पूर्व | पडी = पश्चिम । दाहिणं दक्षिण | उदीर्ण-उत्तर दिशा में रहे हुए जीवों को । आइक्खे = धर्मोपदेश दे । विभए=धर्म के विभाग बतावे । किट्टे धर्म का कीर्त्तन करे । से वह मुनि । सुस्समाणेषु = धर्म सुनने के अभिलाषी व सेवा-शुश्रूषा करने वाले । उट्ठिएसु वा अनुट्ठिएसु वा = साधुओं और गृहस्थों को । संति = शान्ति । विरई - विरति त्याग । उवसमं क्षमा । निव्वाणं- निर्वाण, मुक्ति | सोयं = शौच - पवित्रता | अजवियं = सरलता । मद्दवियं = कोमलता । लाघवियं = लघुता - निष्परिग्रहता का । श्रणवत्तियं = आगम-मर्यादा उल्लंघन न करके । पवेयए = उपदेश दे । भिक्खु = भिक्षु मुनि | अणुवी = विचार कर । सन्वेसिं पाणाणं = सब प्राणियों को। सव्वेसि भूयाणं = सब भूतों को । सव्वेसिं सत्ताणं = सब सत्वों को। सव्वेसिं जीवाणं = सब जीवों को । धम्ममाइक्खिज्जा = धर्म का कथन करे ।
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