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षष्ठ अध्ययन द्वितीयोद्देशक ]
[४५६ जे य हिरी जे य अहिरिमाणा। चिच्चा सव्वं विसुत्तियं फासे समियदंसणे एए भो णगिणा वुत्ता जे लोगंसि प्रणागमणधम्मिणो ।
संस्कृतच्छाया-स आकष्टो वा हतो वा लञ्चितो वा पलिअं (कम ) प्रकथ्य अथवा प्रकथ्यातयः शब्दस्पर्रुश्चेति सङ्ख्याय एकतरान् अन्यतरान् अभिज्ञाय तितिक्षमाणः परिव्रजेत ये च हारिणो ये च अहारिणः । त्यक्त्वा सर्वी विस्रोतसिका स्पर्शान् स्पृशेत् समितदर्शनः, भो एते नग्ना उक्ता ये लोके अनागमनधर्माणः।
शब्दार्थ-पलियं-प्रथम के निन्दित कामों को उद्देश्य करके । पकत्य=निन्दा करके। अदुवा अथवा। अतहेहि असत्य । सद्दफासेहि-शब्दों और दुखों द्वारा। आकुठे वचन द्वारा
आक्रोश किये जाने पर । हए वा अथवा मारे जाने पर । लुञ्चिए वा अथवा बाल खींचे जाने पर । इय यह मेरे स्वकृत कर्म का फल है यह । संखाए यह विचार कर । एगयरे अनुकूल । अन्नयरे प्रतिकूल । जे य हिरी-जो मन को लुभाने वाले । जे य अहिरिमाणा-जो मन को अनिष्ट लगने वाले परीषह हैं उन्हें । अभिन्नाय जानकर । तितिक्खमाणे-भलीभांति सहन करते हुए । परिव्वए संयम में विचरे । सव्वं सब प्रकार की। विसुत्तियं परीपहजन्य ग्लानि को। चिच्चा=दूर करके । समियदंसणे-सम्यग्दृष्टि । फासे-परीषहों को सहन करे । जे–जो। लोगंसि= लोक में ।अणागमदंसिणो गृहवास में पुनः नहीं फँसते हैं। एए वे ही । भो हे शिष्य । नगिणा= मुनि । वुत्ता-कहे गए हैं।
भावार्थ-कदाचित् कोई पुरुष मुनि की उसके पहिले के किए हुए निन्दित कामों को लक्ष्य करके अथवा चाहे जैसे असभ्य शब्द वोलकर मिथ्या आरोप द्वारा निन्दा करने लगे अथवा मुनि के अंगों पर प्रहार करे अथवा बाल खींचे तब मुनि उसे अपने किए हुए कर्मों का फल उदय में आया हुआ जानकर ऐसे प्रतिकूल और अनुकूल मनोहारी और अनिष्ट परीषहों को भलीभांति सहन करे । परीषह जन्य ग्लानि को दूर करके शुद्ध श्रद्धा रखते हुए उपसर्ग व परीषहों को सहन करे । जो व्यक्ति गृहवास का त्याग करके पुनः उसमें नहीं फँसते हैं वे ही सच्चे मुनि हैं।
विवेचन-प्रकृतसूत्र में ग्राम-कण्टकों को सहन करने का उपदेश दिया गया है। साधना के मार्ग में परीषह और उपसर्ग रूप संकट उपस्थित होते हैं। बहुत से साधक परीषह और उपलगों से व्याकुल होकर साधना का मार्ग छोड़ देते हैं। ऐसे व्यक्तियों को स्थिर एवं अविचल बनाने के लिए सूत्रकार यहाँ फरमाते हैं कि कदाचित् संयमी साधकों को कोई असंस्कारी पुरुष उपसर्ग दे-उनकी निन्दा करे, गाली दे, मारे तो भी साधकों को चाहिए कि उसे समभाव से सहन करें। परीषहों को अपने कर्म का उदय जानकर सहन करें । परीषह का अर्थ है स्वेच्छा से स्वजन्य और परजन्य कष्ट का होना जबकि उपसर्ग का अर्थ है अन्ध द्वारा होने वाले कष्ट । ये दोनों प्रकार के संकट संयम के मार्ग में उपस्थित होते हैं।
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