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२२८ ]
[आचाराङ्ग-सूत्रम्
शास्त्रकार ने यह निरूपण इसलिये किया है कि आखिर कामभोगों एवं विलासों से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए वास्तविक सुख को प्राप्त करने के लिए और आत्मस्वरूप को समझने के लिए पुरुषार्थ करना ही पड़ेगा । वास्तविक-स्वरूप को समझने के लिए कृत्रिम वैभाविक तत्वों का त्याग करने में पुरुषार्थ करना ही पड़ेगा। जिस प्रकार डाक्टर रोगी के रोग को समझ कर दो प्रकार की चिकित्सा ( मेडिकल और सर्जिकल ) देवी और आसुरी में से किसी एक का-जो रोगी के लिए हितकर हो-आश्रय लेता है उसी प्रकार चित्त के रोग को दूर करने के भी दो मार्ग हैं । प्रथम मार्ग तो यह है कि वैभाविकता को अधिक बढ़ने के पहिले ही उसे काट कर फेंक देना चाहिए और दूसरा मार्ग वैभाविकता को दूर करने के लिए उसकी विरोधी दवाई के सेवन से स्वाभाविकता उत्पन्न करना चाहिए । इन दो मार्गों की तरह या तो लोकसंसर्ग में रहकर निर्लेप रहता हुआ साधना के मार्ग में आगे बढ़े या लोकसंसर्ग से दूर रहकर साधना में आगे बढ़े । किसी भी मार्ग का आश्रय लेकर आत्मा के शुद्ध स्वरूप की ओर बढ़े बिना छुटकारा नहीं हो सकता। इसलिए जिसे आत्म-प्रतीति हो गयी हो उसे अप्रमादी बनकर संयम में सदा दृढ़ता रखनी चाहिए।
पूर्व संयोगों का वृत्तियों पर ऐसा गुप्त या प्रकट प्रभाव पड़ा रहता है कि अल्पमात्र भी निमित्तों के कारण साधक अपनी साधना से पतित हो जाता है। उसकी वृत्तियाँ उसे संयम से पतित कर देती हैं
और चिर अभ्यरत विषय-कषायों की तरफ उसे खींच ले जाती हैं। पूर्वाध्यास अति प्रबल होते हैं । जब कभी साधक को ये पूर्वसंयोग सताने लगे तब साधक को यह विचारना चाहिए कि-हे आत्मन् ! ये वृत्तियाँ तुझे विपरीत मार्ग पर घसीट ले जा रही है, तुझे इन वृत्तियों के अधीन नहीं होना चाहिए वरन इन पर काबू करके इन्हें सुमाग की ओर प्रवृत्त करनी चाहिए । इन वृत्तियों की गुलामी के कारण तूने पूर्वकाल में अनेक पापकर्म किये हैं । इन्द्रियों का पोषण करने के लिए, सांसारिक विषयों का उपभोग करने के लिए, तथा सांसारिक सुखों के लिए तूने अनेक प्रकार के छल किये, अनेकों के गले पर छुरियाँ चलायी, अनेकों के साथ विश्वासघात किया और कोई पाप नहीं बचा जिसे सेवन न किया हो । इतने पापकर्म करते हुए भी और अनेकों बार भोगोपभोग की विपुल सामग्री प्राप्त होने पर भी क्या आत्मा को संतोष हुआ ? नहीं; कदापि नहीं। वस्तुतः जिसमें सुख मान रक्खा है उसमें सुख है ही नहीं तो सुख मिलेगा कहाँ से ? इसलिये तूने अबतक पापकर्म तो खूब कर लिए हैं लेकिन उनसे शान्ति नहीं मिली तो अब सत्यमय संयम में प्रवृत्ति कर, तो तुझे सुख-शान्ति की प्राप्ति हो सकेगी। पापों में प्रवृत्ति करके तूने उनका अनुभव कर लिया तो संयम में दृढ़ता रखकर उसके फल का भी अनुभव कर । पाप में शान्ति कहाँ ? संयम में सदा सुख ही
सुख है।
___ जो बुद्धिमान साधक वृत्तियों के अधीन नहीं रहता है और संयम में दृढ़ता रखता है वह समस्त पापकर्मों को नष्ट कर डालता है।
अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरित्तए, से अण्णवहाए अण्णपरियावाए, अण्णपरिग्गहाए, जणवयवहाए, जणवयपरियावाए, जणवयपरिग्गहाए।
संस्कृतच्छाया-अनेकचित्तः खल्वयं पुरुषः, स केतनमर्हति पूरयितुं, सोऽन्यवधाय अन्यपरितापाय अन्यपरिग्रहाय, जनपदवधाय, जनपदपरितापाय, जनपदपरिग्रहाय ( प्रभवतीत्यध्याहारः )
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