________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
तृतीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
२११
स्फुरणा प्राप्त होती है और तभी संयम यथेष्ट लाभप्रद हो सकता है । यह विवेक हो जाने पर ही आत्मविकास का मार्ग खुला होता है । अतः आत्मा की विशुद्धि प्रतीति करके मोहरूप महानिद्रा से जागृत होना चाहिए और संयम में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए । विह्वलता से छूटने का यही उपाय है।
प्रारंभजं दुक्खमिणं ति णच्चा, माई पमाई पुण एइ गब्भं, उवेहमाणो सद्दरूवेसु उज्जू माराभिसंकी मरणा पमुच्च ।
संस्कृतच्छाया — आरम्भजं दुःखमिदमिति ज्ञात्वा, मायी प्रमादी पुनरेति गर्भम्, उपेक्षमाणः शब्दरूपेषु, ऋजुः माराभिशङ्की मरणात् प्रमुच्यते ।
शब्दार्थ –इणं दुक्खं यह दुःख । आरंभजं-हिंसादि से होता है । इति च्चाह जानकर सदा जागृत रहना चाहिए। माई - मायावी । पमाई = प्रमादी | पुण= बारबार । गब्भं एइ = जन्म-मरण करता है | सद्दरूवेसु = शब्द रूपादि विषयों में । उवेहमाणो = रागद्वेष नहीं रखता हुआ । उज्जू = सरल स्वभावी | माराभिसंकी - जन्म-मृत्यु के चक्र से डरता है वह व्यक्ति | मरणा=मृत्यु से । पमुच्च मुक्त हो जाता है ।
भावार्थ - हे बुद्धिमान् शिष्य ! प्राणियों को होने वाले सभी दुख हिंसादि श्रारम्भ से उत्पन्न होते हैं यह जानकर सदा आरम्भों से सावधान रहना चाहिए । मायावी और कषायी तथा प्रमादी प्राणी पुनः पुनः गर्भ में आकर जन्म-मरण के चक्र में फँसता है । इसके विपरीत जो व्यक्ति जन्म-मरण से डर कर शब्दादि विषयों में रागद्वेष न रखता हुआ समभाव ( सरलता ) से प्रवृत्ति करता है वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है ।
विवेचन – प्रस्तुत सूत्र में दुःख का कारण बताया गया है। सभी दुखों का निदान सावद्य अनुष्ठान रूप आरम्भ है। संसार में जहाँ कहीं दुख का अनुभव होता है उसका कारण प्राणियों की पापप्रवृत्ति ही है । पाप स्वयं दुखरूप है और दुखों का निदान है। पाप-क्रियाओं से संसार दुखमय बनता है तिर्यदि गतियों में दुख उठाने पड़ते हैं ।
इस तत्व में भी अगर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि इसमें जड़ वस्तुओं के प्रति आकर्षण ही काम कर रहा है । प्राणी पाप करने के लिए प्रवृत्त होता है इसका कारण जड़ वस्तुओं का आकर्षण और आत्मद्रव्य का अज्ञान ही है। जड़ वस्तुओं के गाढ़ सम्पर्क के कारण चैतन्यराज भी अपने चैतन्य को भूलकर अपने आपको भी जड़ मानने लगता है। जिस प्रकार जन्म से ही सिंह
बच्चा बकरियों के समूह में रख दिया जाय और सतत बकरियों का ही उसे संसर्ग रहे तो वह उस संसर्ग के कारण सिंह स्वरूप को भूलकर अपने को बकरी ही मानने लगता है । यही दशा जड़ के गाढ़ संसर्ग के कारण चैतन्य की होती है। इसके कारण जड़ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए, भौतिक आनन्द को लूटने के लिए, अधिक से अधिक साधन-सामग्री जुटाने के लिए प्राणी सावद्य क्रियाएँ करता है और ये ही
For Private And Personal