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द्वितीय अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
[१२३
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ अपने समान सभी जीवों को समझो। जो व्यवहार स्वयं को प्रतिकूल लगता है वह व्यवहार दूसरे के साथ मत करो। इन दो सूक्तियों को अपना जीवनसूत्र बना लेना चाहिए। इनके अनुकूल आचरण करने से समभाव की वृद्धि होती है और इससे वीतराग अवस्था प्राप्त हो जाती है जो सभी का ध्येय है।
ऐसा होते हुए भी प्राणी अपने माने हुए मिथ्या सुख के लिए विपरीत प्रयत्न करते हुए देखे जाते हैं--जाते हैं सुख की शोध में और प्राप्त करते हैं अपरिमित दुःख, यही सूत्रकार निम्न सूत्र में प्रतिपादन करते हैं :--
तं परिगिझ दुपयं चउप्पयं अभिजंजिया णं संसिंचियाणं तिविहेणं जावि से तत्थ मत्ता भवइ, अप्पा वा, बहुया वा से तत्थ गढिए चिट्ठइ भोषणाए। व संस्कृतच्छाया-तत् परिगृह्य द्विपदं चतुष्पदमभियुज्य संसिच्य त्रिविधेन यापि तस्य तत्र मात्रा भवति–अल्ला वा बढी वा स तत्र गृद्धास्तष्ठति भोजनाय । - शब्दार्थ-तं असंयमित सुखी जीवन का। परिगिज्झ आश्रय लेकर। दुपयं-दो पाँव वाले दास-दासी को । चउप्पयं चार पाँव वाले बैल, घोड़े आदि को। अभिजुजिया काम में नियुक्त करके । संसिचियाणं धन एकत्रित करके । तिविहेण तीन करण तीन योग से । जावि= जो भी । से तत्थ मत्ता भवइ धन की मात्रा एकत्रित होती है। अप्पा वा वह अल्प हो । ब्रहुया वा=अथवा बहुत हो । से तत्थ गढिए चिट्ठइ भोप्रणाए वह प्राणी उसके उपभोग में आसक्त रहता है।
भावार्थ-असंयमित जीवन प्रिय होने से प्राणी द्विपद (दास-दासी तथा कर्भकरों) और चौपद (पशुओं) का उपयोग करके उनके द्वारा द्रव्य संचय करता है। इस प्रकार भोगोपभोग के लिए जो भी अल्प या बहुत धन एकत्रित होता है उसमें यह प्राणी मन, वचन और काया से आसक्त रहता है। . ! विवेचन-ऊपर यहाँ बताया जा चुका है कि प्राणी अपने माने हुए मिथ्या सुख को प्राप्त करने के लिए विपरीत प्रयत्न करता है। अज्ञान के वशीभूत होकर सुखाभासों में सुख की झूठी कल्पना करके उसके साधनों को प्राप्त करने के लिए कठिन से कठिन दुःखों को सहन करता है । अर्थप्राप्ति के लिए वह कष्टों को कष्ट नहीं समझता है, उसकी रक्षा के लिए अनेक प्रकार के उपाय करने पड़ते हैं, वे सब करता हुआ भी उसके चले जाने के भय से सदा सशङ्कित रहता है, सदा चिन्तामग्न रहना पड़ता है। इसका
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