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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
गार है ऐसा प्रसंग से समझना चाहिये । इस सूत्र में "तं णो करिस्सामि" इस पद से संयम क्रिया की प्रतीति होती है। इसके बाद "मत्ता" यह पद देकर आचार्य यह सूचित करते हैं कि अकेली क्रिया से ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है किन्तु जीवादि तत्त्वों का ज्ञान भी आवश्यक है। सम्यग्ज्ञान पूर्वक की गयी क्रिया ही साध्य सिद्धि का कारण होती है। इसी तरह आगे 'तं जेणो करए यह पद देकर यह सूचित करते हैं कि केवल ज्ञान मात्र से ही मोक्ष नहीं है परन्तु आरम्भ निवृत्ति रूप क्रिया भी आवश्यक है। जैसा कि कहा है - " नाणं किरियारहियं, किरियामेत्तं च दोवि एगन्ता । न समत्था दाउ जे जम्ममरणदुक्खदाहाई । " अर्थात् अकेला ज्ञान और अकेली क्रिया जन्ममरण से मुक्त करने में समर्थ नहीं है। ज्ञान विना की क्रिया क्रिया के बिना ज्ञान पङ्ग हैं ।
सूत्र में कर्मबन्धन का और संसार का परस्पर कार्यकारण भाव बताते हैं:--
जे गुणे से आवट्टे, जे श्रावट्टे से गुणे (४०)
संस्कृतच्छाया - यो गुणः स श्रावर्त्तः, य आवर्त्तः स गुणः ।
शब्दार्थ — जे–जो | गुणे-इन्द्रियों के विषय हैं । से=वे | आवट्टे = संसार के कारण हैं । जे वट्टे = जो संसार हैं। से गुणे = वह विषयों का कारण है ।
भावार्थ - शब्दादिक इन्द्रियों के विषय संसार के कारण है, और संसार विषयों का कारण है।
विवेचन - इन्द्रियों के विषय और संसार में परस्पर कार्य कारणभाव है । जो शब्दादि गुणों में सक्त है वह संसार में आसक्त है और जो संसार में आसक्त है वह शब्दादि गुणों में आसक्त है । वस्तुतः इन्द्रियों के विषय संसार के मूल कारण नहीं हैं किन्तु विषयों में श्रासक्ति ( रागद्वेष ) ही संसार का मूल कारण है । विषय तो निमित्त कारण हैं। क्योंकि इन्द्रियाँ अपने २ विषय में प्रवृत्त होती है तदपि रागद्वेष के अभाव से संयती साधुओं के लिये वे विषय संसार के कारण नहीं होते। साधु के कान भी शब्द श्रवरण करते हैं, आँख भी रूप देखती है, नाक भी सूँघता है, रसना स्वाद लेती है और स्पर्शनेन्द्रिय स्पर्श को ग्रहण करती है तो भी उनमें रागद्वेष की प्रवृति न होने से वे संसार के कारण नहीं बनते हैं। आगम में अन्यत्र कहा है कि "करणसोक्खेहिं सदेहिं पेमं नाभिनिवेसए" अर्थात्-कान को सुख देने वाले मनोज्ञ शब्दों में प्रेम स्थापन न करे । इसमें भी रागभाव का ही निषेध हैं। और भी कहा है। "न शक्यं रूपमदृष्टम् चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ तु यौ तत्र तौ बुधः परिवर्जयेत्" अर्थात् ऐसा तो सम्भव नहीं है कि अपने विषय रूप को न देखे । केवल उस रूप में रागभाव और द्वेषभाव करना बुद्धिमान के लिये वर्जनीय है । इससे यह सिद्ध होता है कि रागद्वेष अर्थात् आसक्ति यह संसार का मूल कारण है । यह बात भी हैं कि मनोज्ञ र मनोज्ञ विषय राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाले प्रबल साधन हो जाते हैं श्रतएव विषयों को संसार का कारण कहा है और जो संसार में आसक्त है वह रागद्वेषात्मक होने से विषयों का कारण हो जाता है। अर्थात् रागद्वेषमय संसारी प्राणी विषयों की ओर शीघ्र प्रवृत्त हो जाते हैं अतः सिद्ध हुआ कि जो विषयों में वर्तमान है वह संसार में वर्तमान है और जो संसार में वर्तमान है वह विषयों में वर्तमान है। दूसरे शब्दों में जो गुणों (विषयों) में आसक्त है वह संसार में श्रमक्त हैं, जो संसार में श्रासक्त है वह विषयों में आसक्त है ।
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