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पञ्चम अध्ययन प्रथमोदेशक ]
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भावार्थ-जो संसार के स्वरूप को जानने वाला साधक निपुण है, वह कमी मन, वचन, काया से स्त्री-संग आदि संसार के सम्बन्ध में नहीं फँसता है । हे आत्मार्थी जम्बू ! वासना का सूक्ष्म असर जीवों पर दृढ़ रूप से होता है इसलिए कदाचित् वासनामय विकल्प पावें और भूल से बन्धनात्मक कार्य हो जाय तो उस भूल को शीघ्र सुधार लेना चाहिए परन्तु भूल को छिपाने का प्रयत्न न करना चाहिए ऐसा करने से दूना पाप लगता है । अतएव कामभोगों के साधनों को प्राप्त करके भी उनके परिणामों पर गहरा विचार करके और उन्हें दुखरूप जानकर स्वयं उनके सेवन से दूर रहे और दूसरों को उनका सेवन न करने का उपदेश दे ।
विवेचन-पहिले के सूत्र में जिज्ञासा वृत्ति के लिए कहा गया है । जिसकी तत्त्व-जिज्ञासा जागृत हो गयी है वह संसार का दृष्टा बन जाता है। वह अपने ज्ञान द्वारा बन्धनों को और उनसे मुक्त होने के उपायों को जान लेता है इसलिए फिर वह बन्धनों में फंसाने वाली कोई भी क्रिया नहीं करता है, यह इस सूत्र में कहा गया है।
जो संसार के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता है वह साधक कदापि, संसार संबंध में नहीं फंसता है। संसार के सम्बन्ध में जकड़ने वाला मुख्य रूप से पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण है । इस आकर्षण के कारण ही संसार का विष वृक्ष फलता फूलता है। शास्त्रकार ने स्त्री-संग को मुख्य रूप से संसार रूपी महल का स्तम्भ माना है । इसे समस्त अधर्मों का मूल और महान दोषों की वृद्धि करने वाला माना है । शास्त्रकार ने दशवकालिक सूत्र में फरमाया है कि:
मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेहुणसंसग्गं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ अर्थात्-मैथुन-सेवन अधर्म का मूल है और अनेक महान दोषों का बढ़ाने वाला है, इसलिए. बाह्य और श्राभ्यन्तर ग्रन्थि-परिग्रह को त्यागने वाले निर्ग्रन्थ मुनि उसका त्रिकरण-त्रियोग से-सर्वथा त्याग करते हैं।
अन्य पापों की अपेक्षा अब्रह्म को विशेष पाप का कारण बतलाया है इसका कारण यह है कि इस पाप की परम्परा अधिक काल तक और अधिक भयंकर रूप से चलती रहती है। इससे होने वाले अनर्थों की गणना नहीं हो सकती है। कामान्ध पुरुष को उचित अनुचित का भान नहीं रहता और वह अनेक दुष्प्रवृत्तियों में फंस जाता है। एक बार अनुचित प्रवृत्ति कर लेने पर अनेक विकराल अनुचित प्रवृत्तियों का आश्रय लेना पड़ता है इसलिए अब्रह्म को सभी पापों में गुरुता दी गई है । जो साधक संसार का स्वरूपदृष्टा है वह तो नारी के संयोग को संसार का कारण मानता है अतएव वह स्त्री संसर्ग और कामविभूषा की ओर से पीठ फेर लेता है । जिसने स्त्री परिषह पर विजय प्राप्त कर ली है उसके लिए अन्य परीषह और उपसर्ग सहना सरल हो जाता है।
अनादिकालीन विषयवासना से वासित मन को इस वासना से सर्वथा मुक्त बनाने के लिए प्रपल पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। ब्रह्मचर्य की साधना का मार्ग अति नाजुक है। इन्द्रियाँ चञ्चल हैं।
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