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पश्चम अध्ययन तृतीयोदेशक ]
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पुद्गल एकत्रित कर लिए थे और कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपने प्रशस्त अध्यवसायों के बल पर सकल घातिकों का क्षय करके निराकरण केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया। यह भावनाओं की प्रबलता का परिणाम है। अतएव बाहर की ओर दृष्टि न रखकर प्रतिपल अपनी अन्तष्टि द्वारा अपनी वृत्तियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । तीर्थंकर देवों ने अध्यवसायों की विचित्रता को कम-वैचित्र्य का कारण कहा है और कर्म-वैचित्र्य से जग-वैचित्र्य होता है। तीर्थंकरों के इन अध्यवसायों के विवेक को तथारूप से मान्य करना चाहिए। यह समझ (विवेक ) जिनमें नहीं है वे साधना के मार्ग में बाल हैं। वे यथारूप से संयम का पालन नहीं कर सकते हैं । इससे यह फलित होता है कि शुद्ध अध्यवसायमय जीवन ही जीवन है । जीवन को टिकाना सरल है लेकिन जीवन जीना कठिन है । अन्तर्दृष्टि से जीवन जीने की कला आ सकती है।
ऊपर यह कहा गया है कि अध्यवसायों की अशुद्धि पर पतन रहा हुआ है। अब यहाँ यह कहा जाता है कि प्रत्येक प्राणी उन्नति चाहता है; कोई पतन को नहीं चाहता फिर भी पतन का कारण क्या है ? सूत्रकार महात्मा फरमाते हैं कि विषयासक्ति और हिंसा कागाढ सम्बन्ध है और ये ही पतन का कारण है। प्राणी यद्यपि विकास का अभिलाषी है तदपि वह अपनी मिथ्या धारणाओं से पदार्थों में अपना विकास देखता है लेकिन कहीं जड़ भी चेतन के विकास का कारण हो सकता है ? पदार्थों में आसक्त होकर प्राणी हिंसादि पापकर्मों में प्रवृत्त होता है यही उसके पतन का कारण है । जहाँ सक्ति-ममता है वहाँ हिंसा अवश्यमेव है। जो क्रिया विषयासक्तिपूर्वक की जाती है वह क्रिया हिंसात्मक है। इस बात को नहीं समझने वाले साधक पतन को प्राप्त करते हैं । जैनशासन में यह बात बड़े स्पष्टरूप से कही गई है। जैनदर्शन यह कहता है कि जहाँ ममता है वहाँ हिंसा अवश्यम्भावी है। जो साधक इसे नहीं समझते हैं वे संसार में गोते खाते हैं और विपरीत मार्ग पर चढ़ जाते हैं। साधकों की यह गम्भीर भूल ही उनके पतन का कारण होती है । पदार्थों में आसक्त होकर प्राणी संयम से पतित हो जाते हैं और गर्भ, जन्म, मरणादि के चक्र में फंस कर गम्भीर वेदनाओं का अनुभव करते हैं ।
यहाँ “रूप” शब्द और “हिंसा" शब्द उपलक्षण हैं। रूप से पाँचों इन्द्रियों के विषय का ग्रहण समझना चाहिए और हिंसा से समस्त श्रास्रव-द्वार समझने चाहिए । इन्द्रिय विषयों में रूप प्रधान है और आस्रव द्वारों में हिंसा प्रधान है अतएव उनका यहाँ ग्रहण किया गया है।
जैनदर्शन में निरासक्ति एवं अहिंसा पर मुख्य भार दिया गया है । जो निरासक्त होता है वह किसी भी प्राणी को लेशमात्र भी पीड़ा नहीं पहुंचाता है। यही निरासक्ति का चिन्ह है। जहाँ वह बात नहीं देखी जाती वहाँ समझना चाहिए कि यह निरासक्ति नहीं लेकिन इसकी अोट में दम्भ है । इसी तरह वही साधक अहिंसक हो सकता है जो निरासक्त है। यों निरासक्ति और अहिंसा के गाढ़ सम्बन्ध को समझना चाहिए । जैनदर्शन की यह मुख्य विशेषता है ।
से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे, इय कम्म परिगणाय सव्वसो से न हिंसइ, संजमइ, नो पगभइ, उवेहमाणो पत्तेयं सायं वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए एगप्पमुहे विदिसप्पइन्ने निविण्णचारी अरए पयासु ।
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