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नवम अध्ययन द्वितीय उद्देशक ]
[ ६०१
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महावीर ने सेवन किया ||१|| वेसण सभापवासु = भींत वाले शून्य घरों में, सभाओं में, प्याऊ में । पणियसालासु = दुकानों में एगया = कभी । वासो = रहते थे । अदुवा = अथवा । एगया = कभी | पलाल पुञ्जेसु = घास के मंचों के नीचे । वासो - निवास करते थे || २ || श्रागन्तारे = गांव के बाहर मुसाफिर खाने में । श्रारामागारे बगीचे में बने हुए मकानों में । तह य नगरे= तथा नगर में । एगया वासो= कभी निवास होता था । एगया = कभी । सुसाणे = श्मशान में | सुरणागारे = खँडहर में | रुक्खमूले वा वासो अथवा वृक्ष के नीचे निवास करते थे || ३ || मुणी = वह मुनि | एएहिं सयणेहिं इन स्थानों में । पतेरसवासे = तेरह वर्ष पर्यन्त । समये श्रसि = तप करते हुए या निश्चल मन से रहे । राई दिवंपि = रातदिन | जयमाणे = यतना करते हुए - संग्रम में उद्यत होकर । अपमत्ते = निद्रादि प्रमादरहित होकर । समाहिए - शंकादि से रहित बनकर । भाइ धर्म- शुक्लध्यान ध्याते थे || ४ ||
भावार्थ - भगवान् की चर्या का वर्णन सुनकर जम्बूस्वामी सुधर्मास्वामी से कहते हैं कि चर्या (विहार) में वस्ती, आसन आदि अवश्यंभावी हैं अतएव जिन शय्या - आसन आदि का उन भगवान् महावीर ने सेवन किया है उनका कथन करने की कृपा करें। (अर्थात् भगवान् कैसी वस्ती में रहते थे ? कैसी शय्या और आसन का उपयोग करते थे सो कहिए ) || १ || ( सुधर्मास्वामी कहते हैं- भगवान् स्थान के लिए किसी प्रकार की प्रतिज्ञा नहीं करते थे । विहार करते-करते जहां चरम पौरुषी का समय आता वहीं रात्रि व्यतीत करते थे ।) भगवान् कभी भींत वाले खाली घरों में, सभाओं में (विश्रान्तिगृहों में), पानी की प्याऊ में, दुकानों में रहते थे, कभी लुहार की शाला में, घास के बने हुए मंचों के नीचे निवास करते थे ||२॥ भगवान् कभी ग्राम के बाहर बने हुए मुसाफिरखानों में, कभी बगीचे में बने हुए मकानों में तो कभी नगर में निवास करते थे । वे कभी खंडहरों में, श्मशान में और कभी वृक्ष के नीचे ही ठहर जाते थे || ३ || वे मुनि महावीर तेरह वर्ष तक इस प्रकार की वस्तियों में तपस्या में लीन होकर अथवा निश्चल मन रखकर रात-दिन अप्रमत्त रूप से संयम में उद्यत रहकर किसी प्रकार की शंका न करते हुए समाधिपूर्वक धर्मध्यान- शुक्लध्यान ध्याते रहे ||४||
गिद्दपि नोपगामाए सेवइ भगवं उट्टाए । जग्गावेइ य अप्पाणं इसिं साई य पडिने ||५|| संबुज्झमाणे पुणरवि श्रासिंसु भगवं उट्टाए । निक्खम्म एगया राम्रो बहि चंकमिया मुहत्तागं ॥ ६ ॥ सयणेहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवा य । संसप्पगाय जे पाणा अदुवा जे पक्खिणो उवचरन्ति ॥७॥
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