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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
इसी प्रकार मान कषाय विनय गुण को नष्ट कर देता है जिससे प्राणी अपने अणुमात्र गुण को पर्वत के समान बताकर प्रशंसा प्राप्त करना चाहता है और दूसरों को पर्वत के समान महान गुणों का तिरस्कार करता है । अभिमानी आत्म-प्रशंसा के पुल बाँधता है जिससे शिष्ट पुरुषों में वह आदरणीय नहीं होता और विनय गुण की हानि से जन्म-मरण को बढ़ाता है । माया शल्य के समान संताप देने वाली है। हृदय की कुटिलता शान्ति का अपहरण करती है और लोक में अविश्वास उत्पन्न करती है । माया संसार को बढ़ाने वाली है। इसी प्रकार लोभ तो पाप का पिता ही है। लोभ का विस्तार आकाश के समान अनन्त है । इससे आत्मिक गुणों की अत्यन्त हानि होती है । इस प्रकार ये चारों कषाय संसार की जड़ का सिंचन करते हैं अतः संसार से मुक्त होने वाले मुमुक्षुओं को इस कषाय- प्रमाद का सर्वथा त्याग करना चाहिए ।
( ४ ) निद्राप्रमाद - सोने की वह क्रिया जिससे चेतना अव्यक्त हो जाती है, निद्रा कहलाती है । स्वास्थ्य के लिए आवश्यक नींद का परिहार न हो सके तो अनावश्यक निद्रा का तो अवश्यमेव त्याग करना चाहिए | अनिवार्य निद्रा से अधिक निद्रा लेना ज्ञान और चारित्र की आराधना में रुकावट डालना है । निद्राशील पुरुष न स्वाध्याय कर सकता है और न चारित्र का सम्यग आराधन ही । अतएव मुमुक्षुओं निद्रा प्रमाद का त्याग करना परमावश्यक है ।
(५) विकथाप्रमाद - अनावश्यक बातें करना विकथा-प्रमाद है। जो बातें संयम की आराधना में रुकावट करती हैं उनका त्याग करना चाहिए । जो बातें संयम की साधिका न होकर बाधिका होती हैं वे कदापि नहीं करनी चाहिए। विकथा के चार भेद हैं- (१) स्त्रीकथा (२) भक्तकथा (३) देशकथा और (४) राजकथा | संयमियों के लिए स्त्रियों की कथा करना मोहोत्पत्ति का कारण हो सकता है। इससे लोक में निन्दा भी होती है और संयम में विघ्न उपस्थित होता है अतः स्त्रीकथा का त्याग करना चाहिए। भोजन सम्बन्धी वार्तालाप करने से जिह्वा की लोलुपता बढ़ती है और तज्जन्य श्रारंभ आदि का भागी होना पड़ता है अतः भक्तकथा भी त्यागने योग्य है । विविध देशों में प्रचलित सांसारिक रीतियों का कथन करना देशकथा है। इस कथा के करने से स्वाध्यायादि में विघ्न पड़ता है और इससे संयम की तनिक भी वृद्धि नहीं होती वरन सांसारिक रीति-रिवाजों के वर्णन करने से संयम में दोषोत्पत्ति हो सकती है । अतः यह भी त्याज्य है । राजा या राज्य सम्बन्धी बातें करने से अनेक अनर्थ हो सकते हैं । राजा वगैरह ऐसी कथा सुनकर साधु को गुप्तचर या दूत समझ सकते हैं और उनपर संदेह हो सकता है । इत्यादि दोषों को जानकर राजकथा का भी त्याग करना चाहिए। ये चारों प्रकार की कथाएँ संयम की साधना के प्रतिकूल हैं, संयम के लिए निरर्थक हैं और विघ्नकारिणी हैं। वार्त्तालाप संयम का विघातक है उसमें कदापि प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए ।
इन पाँचों प्रकार के प्रमादों में जो नहीं फँसता है वही बुद्धिमान् है । इन प्रमादों का त्याग ही मोक्ष का कारण है । वर्तमान और भविष्य के लिए प्रमाद का परित्याग ही सुख का पात्र बनाने वाला है अतः बुद्धिमान् प्रमाद में गाफिल नहीं होता है और अप्रमत्त जीवन व्यतीत करता है ।
“संतिमरणसंपेहाए” इस पद में शान्ति और मरण को समाहार द्वन्द्व मानने पर यह तात्पर्य निकलता है कि शान्ति अर्थात् मोक्ष और मरण अर्थात् संसार । इन दोनों का विचार करके प्रमाद का त्याग करना चाहिए। प्रमाद से संसार और अप्रमाद से मोक्ष होता है यह जानकर बुद्धिमान् प्रमाद न करें। दूसरा अर्थ यह भी होता है कि शान्ति-मरण (समाधि मरण) का विचार करके प्रमाद का परित्याग
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