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सम्यक्त्व नाम चतुर्थ अध्ययन
- चतुर्थोद्देशकः
गत उद्देशक में तप का विधान किया गया है। तप की यथार्थता और अविकलता संयम के द्वारा होती है । तप को सार्थक बनाने के लिए संयम की आवश्यकता है और संयम की स्थिरता के लिए तप की अनिवार्यता है। जिस तरह स्वर्ण की अंगूठी में जड़ा हुआ नगीना स्वर्ण से शोभा पाता है और स्वर्ण नगीने से शोभा पाता है, जिस तरह जल की शोभा कमल से है और कमल की शोभा जल से है इसी तरह तप की शोभा संयम से है और संयम की शोभा तप से होती है। अतएव इस उद्देशक में संयम का प्रतिपादन किया गया है:
श्रावीलए, पवीलए, निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिचा उवसमं तम्हा अविमणे वीरे, सारए, समिए, सहिए, सया जए, दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियट्टगामीणं ।
संस्कृतच्छाया-आपीडयेत्, प्रपीडयेत्, निष्पीडयेत्, त्यक्त्वा पूर्वसंयोगं हित्वा उपशमं, तस्मादविमनाः वीरः स्वारतः, समितः, सहितः सदा यतेत । दुरनुचरो मार्गः वीरानामनिवर्तगामिनाम् ।
शब्दार्थ-पुव्वसंजोगं पूर्व संयोग को। जहित्ता छोडकर । उवसम-शान्ति को । हित्वा प्राप्त करके । श्रावीलए-आदि में अल्प देहदमन करे । पवीलए पश्चात् विशेष दमन करे । निप्पीलए तदनन्तर सम्पूर्ण रूप से दमन करे। तम्हा=इसलिए । अविमणे शान्तचित्त से । वीरे-बीर साधक । सारए स्वरूप में प्रेम धारण कर । समिए पाँच समिति से युक्त होकर । सहिए-ज्ञानादि सद्गुण युक्त होकर । सया हमेशा । जए यत्नपूर्वक क्रिया करे । अणियदृगामीणं= मोक्ष प्राप्त करने वाले । वीराणं वीरों का । मग्गो मार्ग । दुरणुचरो=बड़ा विकट है ।
भावार्थ -संसार के पूर्वसंयोगों का त्याग कर उपशान्त वृत्ति को पाकर क्रमपूर्वक पहिले अल्प पश्चात् विशेष तदनन्तर सम्पूण रीति से देह का दमन करना चाहिए । अथवा कर्मों का दमन करना चाहिए। अतएव वीर साधक आत्मस्वरूप में प्रसन्नता धारण कर, संयम में तल्लीनता रखकर, पांच समिति से युक्त होकर सदा यत्नापूर्वक क्रिया करे। हे साधको ! मोक्ष प्राप्त करने वाले वीरों का मार्ग बड़ा विकट है। आसान नहीं है।
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