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[प्राचाराङ्ग-सूत्रम्
संयमी साधक देश-विदेशों में विहार करते हैं। उनके जीवन में ऐसे भी प्रसंग उपस्थित होते हैं जब कि दूसरे लोग उनकी निन्दा करते हैं। उन पर क्रोध करते हैं । संयम स्वीकार करने के पहिले के दोषों को कह कह कर साधु की भर्त्सना करने वाले व्यक्ति मिलते हैं। कोई साधु को देखकर यह कहते हैं कि “यह तो धूर्त है, ठग है, बहुरूपिया है, चोर है, पारदारिक है ।" इस प्रकार पूर्व के किये हुए पापों के कारण कोई व्यक्ति साधु की निन्दा करे अथवा अन्य असत् आरोपों के द्वारा साधु की अवहेलना करे अथवा क्रोध और ईर्षावश साधु पर प्रहार करे-ताड़न करे अथवा साधु के बालों को खींचे या अन्य किसी प्रकार का अपमान करे तब साधु को क्या करना चाहिए यह इस सूत्र में बताया गया है।
सूत्रकार फरमाते हैं कि ऐसे प्रसंग पर साधु को क्रोध न करना चाहिए। सामने वाला व्यक्ति क्रोध करता है-आक्रोश करता है यह उसके अज्ञान का फल है। साधु भी यदि उस अज्ञानी के व्यवहार पर क्रोध करने लगे तो ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर क्या रह जाता है ? अज्ञानी पुरुष क्रोध के वास्तविक कारण को न समझने से और क्रोध के फल को न जानने से क्रोध करता है। साधु तो ज्ञानी होते हैं । वे यह समझते हैं कि दूसरे यदि मेरी निन्दा करते हैं, मुझे ताड़न करते हैं या मेरा अपमान करते हैं तो इसमें दूसरे का दोष नहीं है । यह तो मेरे ही किये हुए पापकर्मों के फल का उदय है। दूसरे तो बेचारे निमित्तमात्र हैं । उन पर वृथा क्रोध क्यों करना चाहिए ? वास्तव में उपसर्ग करने वाले तो मेरे कर्म ही हैं। उन कर्मों का विनाश करना हो मेरा कर्त्तव्य है । समभाव से कर्मों का विनाश होता है अतएव शान्ति के साथ मुझे मेरे कर्म का फल भोगना चाहिए। आगम में कहा है:
पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुचि दुचिन्नाणं दुप्पाडिकंताणं वेदायित्ता मुक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा व झोसइत्ता ।
अर्थात्-पहिले के दुश्चीर्ण और दुष्पराक्रान्त पापकर्मों का फल भोगने से अथवा तपश्चर्या द्वारा उनका क्षय करने से मोक्ष होता है । कर्मफल के भोग के बिना मोक्ष नहीं है । यह साधकों को सदा विचारना चाहिए और ऐसे प्रसङ्गों पर समभाव रखना चाहिए ।
यह प्रचलित लोकनीति है कि "शठे शाठ्यम् समाचरेत्" अर्थात्-शठ के साथ शठता का व्यवहार करना चाहिए । धर्मशास्त्र इसका विरोध करता है। जो लोग शठ के साथ शठ बनकर शठता का वर्ताव करते हैं वे जगत् को शठता से मुक्त नहीं कर सकते वरन् शठता की वृद्धि में सहायक होते हैं । बुराई को दूर करने के लिए बुराई अङ्गीकार नहीं करनी चाहिए। बुराई से बुराई नहीं मिट सकती। इसी तरह क्रोध करने वाले पर क्रोध करने से क्रोध दूर नहीं होता । साधु तो स्वयं बुराई से बचते हैं और दूसरों को भी बुराई से बचाते हैं ।वे बुराई का आश्रय कदापि नहीं लेते । आगम में यह कहा गया है:
पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे उप्पन्ने उवसग्गे सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ तंजहा–जक्खाइट्ट अयं पुरिसे ? उम्मायपत्ते अयं पुरिसे २ दित्तचित्ते अयं पुरिसे ३ ममं च णं तब्भववेअणीयाणि कम्माणि उदिनाणि भवंति जगणं एस पुरिसे पाउसइ बंधइ तिप्पइ पिट्टइ परितावेइ ४ ममं च णं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स एगंतसो कम्मणि जरा हवइ ५। पंचेहिं ठाणेहिं केवली उदिने परीसहे उवसग्गे जाव अहियासेज्जा-जाव ममं च णं अहियासेमाणस्स बहवे छउमत्था समणा निग्गंथा उदिने परीसहोवसग्गे सम्मं सहिस्संति जाव अहियासिरसंति ।
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