________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
६६]
[श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
प्राणियों को भस्मी भूत कर देता है। यही बात भगवती सूत्र में कही गई है-गौतम स्वामी के यह प्रश्न करने पर कि अग्नि को जलाने वाला ज्यादा कर्म बांधता है या बुझाने वाला ? भगवान् फरमाते हैं कि
"गोयमा ! जे उज्जालेति से महाकम्मयराए, जे विझवेति से अप्पकम्भयराए ।"
अर्थात्-हे गौतम ! जो अग्नि प्रज्वलित करता है वह महान् कर्म बांधता है, जो अग्नि बुझाता है वह अल्पकर्म बाँधता है । अतएव अग्नि के प्रारम्भ को सर्वभूतोपमर्दनकारी जानकर त्यागना चाहिए।
एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्छेते प्रारम्भा अपरिगणाया भवंति । एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते प्रारंभा परिणाया भवंति (३७)
तं परिणाय मेहावी णेव सयं अगणिसत्यं समारंभेजा नेवऽगणेहिं अगणिसत्थं समारंभावेजा,अगणिसत्थं समारंमभाणे अण्णे न समणुजाणेजा, जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि (३८)
संस्कृतच्छाया-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्र असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति । तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं अग्निशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैरग्निशस्त्रं समारम्भयेत, अग्निशस्त्रं समारभमाणानन्यान् न समनुजानीयात् । यस्यैते अग्निकर्मसमारम्भा: परिज्ञाताः भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमि ।
भावार्थ--- इस अग्निकाय की हिंसा करने वाले को इस हिंसा का भान तक नहीं होता है इसलिये उसे कर्मबन्धन का विवेक नहीं होता है । जो अग्निकाय का आरम्भ नहीं करता है उसे कर्मबन्धन की क्रियाओं का विवेक होता है अतः उसे कर्मबन्धन नहीं होता । यह जानकर बुद्धिमान् पुरुष स्वयं अग्निकाय का आरम्भ न करें, न दूसरों से करावे और न करते हुए को अच्छा समझे । जो इस अग्निकाय के समारंभ के अशुभ परिणाम को जानता है वही परिज्ञासम्पन्न (विवेकी) मुनि है । यह मैं भगवान् से सुनकर तुझे कहता हूँ।
HARMATHIHARINITRATHIHDAIELHHILDNHRISTIANERUTHITENDRAINMHPTEHHAUHA
NAMITIHAR
इति चतुर्थोद्देशकः
For Private And Personal