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पञ्चम अध्ययन पञ्च मोदेशक ]
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मुनि समझ सकते हैं परन्तु कदाचित् कोई साधक अपने कर्मोदय से तत्वदर्शी पुरुषों के साथ रहता हुआ भीत नहीं समझ सकता है तो उसे खेद क्यों न हो ? अवश्य होता ही है । परन्तु ( ऐसे प्रसंग पर अन्य विचक्षण साधु को चाहिए कि उस दुखी साधक से यह कहे ) जिनेश्वर देवों ने जो प्रवेदित किया है वही सत्य है, वही निश्शंक है ( इस प्रकार तुझे श्रद्धा रखनी चाहिए ) |
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में श्रद्धा जागृत करने के लिए कहा गया है। श्रद्धा बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना शान्ति नहीं । सम्यग्दर्शन ( श्रद्धा ) के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता । सच्चे ज्ञान के बिना समाधि दुर्लभ है। सभी प्राणी समाधि के इच्छुक हैं अतएव उन्हें श्रद्धा करनी चाहिए। श्रद्धा के अभाव में प्राणी संशय के जाल में फँसा रहता है और “संशयात्मा विनश्यति" संशय वाला व्यक्ति विनाश को प्राप्त करता है। संशयरूपी शल्य जब हृदय में चुभता रहता है तो वह बुद्धि को भ्रान्त बनाकर जीवन को विनाश के मार्ग में ले जाता है। संदेह की आग जब हृदय में भड़क उठती है तो मनुष्य की निर्णायक शक्ति उसमें भस्म हो जाती है और वह मनुष्य को किंकर्त्तव्यविमूढ़ बना देती है । संशय के अंकुर का यदि निवारण न कर लिया जाय तो वह बढ़कर हृदय में इतना अंधकार भर देता है कि आत्मा का सहज प्रकाश उसमें कहीं विलीन हो जाता है ।
यद्यपि "क्रिया कोई निष्फल नहीं होती" यह प्रकृति का अटल नियम है तदपि प्राणी अपने ज्ञान के द्वारा इस कुदरत के कानून के विषय में शंकाशील बनता है । "मैं इतनी कठिन तपश्चर्या करता हूँ - इतनी उग्रता से संयम का पालन करता हूँ परन्तु न जाने इसका फल मुझे मिलेगा या नहीं ? इस प्रकार की शंका करना विचिकित्सा है । यह विचिकित्सा मन की वृत्ति की एक तरंग है। यह एक विकल्प मात्र है। विकल्प का भूत जब तक सिर पर सवार रहता है तब तक शान्ति की आशा करना भ्रम मात्र है । अन्य प्राणियों की अपेक्षा मानव में अन्तःकरण का विकास और बुद्धि ये दो तत्त्व विशेष रूप से हैं । इन दो तत्वों को पाकर मनुष्य को ज्यादा संस्कृत होना चाहिए था लेकिन प्रायः मनुष्यों का बहुत बड़ा भाग इन दो साधनों के दुरुपयोग से अधिक विकृत हुआ दिखाई देता है । इसका कारण भी मानसिक विकल्प है। कई व्यक्ति विकल्प को विचार और चिंतन का रूप देते हैं लेकिन यह भूल है। विचार एवं चिन्तन में निर्णय होता है जब कि विकल्प में निर्णय नहीं होता । यह विकल्प ही श्रद्धा का सबसे बड़ा आवरण है - बाधक है ।
श्रद्धा का अर्थ है - विश्वास । अनुभवी पुरुषों का अनुभव, शास्त्रीय वचन और अपनी विवेकबुद्धि इन तीनों का समन्वय करने पर जो सत्य प्रतीत उस पर अटल विश्वास होना ही श्रद्धा है। श्रद्धा में विवेक-बुद्धि और हृदय दोनों को अवकाश है। ऐसी श्रद्धा अंध श्रद्धा नहीं हो सकती ।
श्रद्धा के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। छोटे से कार्य से लगाकर महान् से महान श्रद्धा के बिना नहीं हो सकता। छोटे से कार्य के पीछे भी अगर श्रद्धा नहीं है तो वह कार्य प्राणरहित देहवत् होता है । एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में श्रद्धा के साथ ही प्रवेश करता है तो वह कुछ अन्वेषण कर सकता है । अगर वह कार्य करते हुए शंकाशील बना रहे तो कभी भी कार्य सम्पन्न नहीं कर सकेगा । वैद्य अगर चिकित्सा और निदान करते हुए शंकाशील ही रहता है तो वह चिकित्सा करने में कभी सफल नहीं हो सकता। एक व्यापारी अगर व्यापार करते हुए सदा शंकित हीं रहता है तो वह
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