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नवम अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
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सिसिरंसि अद्धपडिवनेतं वोसिज्ज वत्थमणगारे। पसारित्तु बाहं परकमे नो अवलम्बियाण कंधम्मि।२२। एस विही अणुकन्तो माहणेण मईमया। बहुसो अपडिन्नेण भगवया एवं रियति ॥२३॥ त्ति बेमि ॥
संस्कृतच्छाया—अल्पं तिर्यक् प्रेक्षते, अल्प पृष्ठतः प्रेक्षते ।
अल्पं ब्रूते अप्रतिभाषी पथिप्रेक्षी चरेद्यतमानः ।।२१।। शिशिरेऽध्वप्रतिपन्नेतद् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः। प्रसार्य बाहू पराक्रमते नावलम्ब्य स्कन्धे (तिष्ठति) ।२२। एष विधिरनुक्रान्तो माहनेन मतिमता । बहुशोऽप्रतिज्ञेन भगवता एवं रीयन्ते ।।२३।। इति ब्रवीमि ।।
शब्दार्थ-अप्पं तिरियं पहाए भगवान् इधर-उधर नहीं देखते थे। अप्पं पिट्ठो पेहाए-पीछे नहीं देखते थे। अप्पं बुइए बोलते नहीं थे । अपडिभाणी-पूछने पर उत्तर नहीं देते थे । पंथपेही मार्ग में देखते हुए। जयमाणे-यतनापूर्वक । चरे=चलते थे ॥२१॥ अणगारे वह अनगार । तं वत्थं उस देवदूष्य वस्त्र को । वोसिज छोड़ देने के पश्चात् । सिसिरंसि=शिशिर ऋतु में । अद्धपडिवन्ने मार्ग में चलते समय । बाहुं पासरित्तु भुजाओं को फैला कर । परक्कमे = चलते थे । कंधम्मि अवलंबियाण नो=कंधे पर हाथ नहीं रखते थे ॥२२॥ मईमया बुद्धिमान् । माहणेण=माहन । बहुसो अपडिन्नेण=किसी प्रकार का निदान न करने वाले । भगवया भगवान् महावीर ने। एस विही अणुकन्तो इस प्राचार का पालन किया है। एवं रियति अन्य मुमुक्षु भी इस प्रकार आचरण करते हैं । त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ ॥२३॥
भावार्थ-अप्रतिबन्ध विहारी भगवान् सामने युग प्रमाण मार्ग का अवलोकन करते हुए यतनापूर्वक चलते थे । वे न इधर-उधर देखते थे और न पीछे की ओर देखते थे । किसी के पूछने पर उत्तर नहीं देते और मौन रहते थे ॥२१॥ वह महान् योगी देवदूष्य का त्याग कर देने के पश्चात् शिशिर ऋतु में, मार्ग में चलते समय दोनों हाथ लम्बे फैला कर चलते थे । ठंड से घबरा कर हाथ सिकोड़ कर नहीं चलते थे और कंधे पर हाथ नहीं रखते थे ॥२२।। मतिमान् , माहन, किसी प्रकार की आकांक्षा न रखने वाले भगवान् महावीर ने इस प्राचार का पालन किया । अन्य मुमुक्षु मुनि भी इसी प्रकार पालन करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ ॥२३॥
इति प्रथमोद्देशकः
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