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म अध्ययन पष्ठ उद्देशक ]
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और शरी -जन्य व्यापारों को नियमित करके, लकडी के पाटिये के समान सहनशील होकर रोगादि आने · पर मरण के लिए तय्यार होकर, शरीर-संताप से रहित होकर इंगितमरण से मरना चाहिए। ग्राम, नगर खेड़ा, कर्ब, मडम्ब, पाटण, बन्दरगाह, खान, आश्रम, सन्निवेश, निगम अथवा राजधानी में प्रवेश करके तृणों की याचना करनी चाहिए । तृण लेकर एकान्त स्थान में जाना चाहिए। वहां अण्डे, प्राणी, बीज, हरियाली, स, पानी, कीडियों के नगरें, लीलन-फूलन, थोडी देर की पानी से गिली मिट्टी, मकड़ियों के जाले आदि से रहित स्थान की प्रतिलेखना और प्रमार्जन करके तृण की शय्या बिछानी चाहिए और उस पर इंगितमरण से मरना चाहिए ।
सत्यवादी, पराक्रमी, रागद्वेष से रहित, संसार से तिरा हुआ सा, "कैसे करूँगा” इस प्रकार के डर और निराशा से रहित, अच्छी तरह बस्तु के स्वरूप को जानने वाला और संसार के बन्धनों में नहीं बँधा हुआ मुनि सर्वज्ञ के आगमों में विश्वास होने के कारण, भयंकर परीषहों और उपसर्गों की श्रवगणना करके और इस नश्वर शरीर को छोड़कर कायरों द्वारा दुरनुचरणीय सत्य का आचरण करता है । इस प्रकार का इंगित मरण काल पर्याय के समान (स्वाभाविक ) है । यह हितकारी, सुखकारी है यावत् भवान्तर में भी इसकी पुण्य-परम्परा साथ आने वाली है। ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेवन - पूर्ववर्ती सूत्रों में त्याग, तप और सद्विचार का वर्णन किया गया है। संयम, तप एवं सद्विचार रूप त्रिपुटी के साहचर्य से साधक को आत्म-तत्त्व की ऐसी तीव्र अनुभूति होने लगती है कि उसका देहाभिमान सर्वथा लय हो जाता है। शरीर पर न उसे मोह होता है और न आसक्ति । वह देह को एक मात्र समता है। इससे जब तक साध्य सिद्ध करने में सहायता मिलती है तब तक वह satara fर्वाह करता है। उसे शरीर पर न मोह है और न घृणा । इसलिए वह रोगादि के खाने पर भी यहाँ तक कि मृत्यु के आने पर भी अधीर और दुखी नहीं होता और न शरीर के प्रति घृणा, ही होती है जो बिना कारण ही उसका अन्त करना चाहे । साधक के लिए शरीर एक सहज साधन है। इस साधन का वह जितना सदुपयोग कर सकता है उतना वह करता है लेकिन जब उसे यह मालूम हो जाता है कि "मेरा शरीर अब इतना क्षीण हो गया है कि अब इसका क्रमशः निर्वाह करने में मैं असमर्थ हूँ; अब यह शरीर संयमसाधना की कियाएँ करने में उपयोगी नहीं है अर्थात् अब जीवन का किनारा श्र चुका है" तो उसे मृत्यु का श्रालिङ्गन करने के लिए तय्यार हो जाना चाहिए और अन्तकाल की शुद्धि के लिए द्रव्य से आहारादि पर और भाव से कषायादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अन्त में शरीरजन्य व्यापार भी बन्द कर देने चाहिए और समाधिस्थ होकर काष्ठ खण्ड के समान सहज सहिष्णुता और समता द्वारा शरीर की ममता त्याग देनी चाहिए। ऐसा करने से रोगादि के आने पर भी साधक समाधिमरण द्वारा धैर्य को प्राप्त करके, देह- संताप से दूर रहकर सुखद मरण से मर सकता है । यह मरण इङ्गितइत्वर मरण कहा जाता है ।
यहाँ इङ्गित अथवा इत्वर का अर्थ "अमुक काल मर्यादा वाला" नहीं है । यहाँ इति का प्रयोग पादपोपगमन की अपेक्षा से समझना चाहिए। अगर इङ्गित का अर्थ सागार प्रत्याख्यान से समझा जाय तो युक्त नहीं होता है। क्योंकि सागार प्रत्याख्यान तो श्रावक करता है कि यदि मैं इतने दिन में
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