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प्रथमोदेशक ]
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सकती है । सत्संगति नन्दन वन के समान शुभ है और कुसंगति भिषाकयत् अनिष्ट परिणाम लाती है श्रतएव कुसंग परित्याग का उपदेश करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं:
से बेमि समणुन्नस्स वा असमणुन्नस्स वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कम्बलं वा पायपंचां वा नो पादिज्जा नो निमंतिजा नो कुज्जा वेयावडियं परं श्राढायमाणे त्ति वेमि ।
संस्कृतच्छाया - सत्रमि समनोज्ञस्य वा असमनोज्ञस्य वा अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा वस्त्रं वा पतद्ग्रहं वा कम्बलं वा पादपुञ्छनं वा नो प्रदद्यात्, नो निमंत्रयेत् न कुर्यात् वैयावृत्यं परमादरवानेति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ — से बेमि= वही मैं कहता हूँ कि । समरणुन्नस्स = समनोज्ञ श्रथवा । असमणुनस्स वा=असमनोज्ञ को । असणं वा = भोजन | पाणं वा = पानी । खाइमं वा = मेवा-मिष्टान्नादि । 1 साइमं वा = लवंगादि स्वादिम । वत्थं वा = वस्त्र | पडिग्गहं = पात्र | कम्बलं = कम्बल | पायपुञ्छणं = रजोहरण | परं=अत्यन्त | आढायमाणे = आदरपूर्वक । नो पदिज्जा = न देवें । नो निमंतिजा - निमंत्रणा न करे । वेयावडियं = वैयावृत्य । नो कुजा = न करे ।
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भावार्थ - हे जम्बू ! मैं कहता हूँ कि मनोज्ञ वेष वाले ( जैन साधु ) परन्तु शिथिलाचारी और असमनोज्ञ (परमत के) साधुओं को अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद पुंछ (रजोहरण) इत्यादि आदरपूर्वक न दे तथा इसके लिए निमत्रण भी न दे और न उनकी सेवा शुश्रूषा ही करे ।
विवेचन - इस सूत्र में कुसंग परित्याग को लक्ष्य में रखकर श्री सुधर्मास्वामी अपने श्रात्मार्थी शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि सदाचारी साधक को स्वमत के शिथिलाचारी साधु और अन्य मत के शाक्यादि साधुयों को अशन, वस्त्रादि न देने चाहिए, इनके द्वारा निमंत्रण भी न देना चाहिए और न उनकी सेवा-भक्ति ही करनी चाहिए।
साधारण दृष्टि से यह कथन जैनधर्म की विश्वव्यापकता का बाधक दिखाई देता है। जैनधर्म अति उदार और व्यापक धर्म है । उसमें प्राणिमात्र आश्रय पा सकता है । उसकी छत्रछाया में विश्व का • प्रत्येक प्राणी धर्म की आराधना कर सकता है। ऐसे उदार एवं विश्ववापी धर्म में ऐसी संकुचितता क्यों होनी चाहिए ? यह प्रश्न प्राथमिक विचारणा के समय उठता है । परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से विचारने पर यह प्रतीत होता है कि यह कथन संकुचितता की दृष्टि से नहीं वरन् आत्मार्थी सदाचारी अनगार साधक के ● निर्मल चारित्र की रक्षा के निमित्त समझना चाहिए। गृहस्थ साधक और अनगार साधक के नियम भिन्न• भिन्न होते हैं। दोनों के आचार एक समान नहीं होते हैं। गृहस्थ साधक अल्पत्यागी हैं. जब कि अनगार साधक पूर्ण त्यागी हैं । त्याग के इस भेद के कारण उनके नियमोपनियम में पर्याप्त भेद है और रहना चाहिए। नगर साधक विश्व की समग्र वस्तुओं पर से अपना ममत्व हटा लेते हैं अतएव वे भिक्षावृत्ति
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