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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
भोग करता है । विविध वस्तुओं की प्राप्ति होने पर भी वह अतृप्त ही रहता है। इसके विपरीत साधक जीवन के सर्वोच्च ध्येय की सिद्धि के लिए शरीर को उपयोगी समझ कर, शरीर धारण के निमित्त ही पदार्थों का भोग करता है । न उसे शरीर का मोह होता है और न विविध स्वादयुक्त मिष्टान और व्यञ्जनों का । उसे जो कुछ मिलता है उसे वह अनासक्त होकर काम में लेता है । इसलिए उसे सदा संतोष का अनुभव होता है । इसी भेद के कारण साधक को विपरीत संयोगों में पीड़ा का अनुभव नहीं होता जबकि सामान्य व्यक्ति प्रतिकूल संयोगों में एकदम अधीर हो उठता है। सामान्य दृष्टि वाले वर्ग में और दिव्यदृष्टि वाले साधक में यह महान् अन्तर रहा हुआ है।
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संसार का कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसे दुख हो, असंतोष हो तदपि प्रत्येक के जीवन में दुख की छाया ये बिना नहीं रह सकती । चाहे यह दुख की छाया पूर्वसञ्चित कर्मों द्वारा आवे चाहे अन्य किसी निमित्त से शरीर की अवस्था का परिवर्तन, व्याधियां, अनिष्ट प्राप्ति, इष्ट का वियोग, लाभ, हानि आदि अनेक कष्ट सञ्चित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों के फल के रूप में जीवन में उतरते हैं। संसार के सामान्य वर्ग पर और दिव्यदृष्टि वाले साधक पर भी ऐसे प्रसंग आते हैं परन्तु दोनों के 'हृदय में इसकी प्रतिक्रिया सर्वथा विपरीत होती है। साधक तो यह समझता है कि सञ्चित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों का फल मिलना सर्वथा स्वाभाविक ही है । कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं । यह समझ कर वह समभावपूर्वक उसको सहन करता है। अपने किए हुए कर्मों के फल को भोगते समय वह अधीर, कातर और व्याकुल नहीं बन जाता परन्तु अपने दिमाग को समतोल रखकर वह शान्ति के साथ उसे सहन करता है और उसमें से भी कुछ नवीनता प्राप्त करता है। इसके विपरीत सामान्य प्राणी दुखों के आने पर व्याकुल हो उठता है, कातर बन जाता है, अत्यन्त ग्लानि का अनुभव करता है। वह इस प्रकार कर्मों का फल भोगते हुए भी नवीन कर्मों का उपादान कर लेता है। यह कितना विशाल अन्तर है जो सामान्य व्यक्ति और साधक के बीच इस कदर रहा हुआ है।
साधक को कदाचित् श्रहार की प्राप्ति न हो और उसका शरीर क्षीण होता जाता हो तदपि वह कदापि धीर नहीं होता है क्योंकि वह जानता है कि शरीर का स्वभाव है कि आहार बिना और परीषहों के कारण क्षीण होता है । यह स्वाभाविक नियम है तो इसमें खेद की क्या आवश्यकता है ? यह जानकर वह दुख का अनुभव नहीं करता जबकि अन्य व्यक्ति कायर बनकर अत्यन्त ग्लानि का अनुभव करते हैं । श्राहार न मिलने पर उन इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं। वे क्षुधापीड़ित होकर न सुनते हैं। और न देखते हैं। ऐसी अधीर स्थिति में वे दुखों का अनुभव करते हैं। आहार के बिना केवली का शरीर भी क्षीण हो जाता है तब सामान्य प्राणी के शरीर का क्या कहना ? केवली भी चार कर्मों से युक्त हैं श्रतएव वे सम्पूर्ण कृतार्थ नहीं हैं उन्हें भी शरीर धारण के लिए आहार करना पड़ता है। श्राहार शरीर के लिए आवश्यक है तदपि कभी संयोगवश न प्राप्त हो तो साधक उसमें अधीर न हो जाता है। परीषहों के प्रसंग में भी वह धैर्य से काम लेता है ।
परीषदों के प्राप्त होने पर वह विचलित होकर अपने व्रतों का, नियमों का और धर्म का त्याग नहीं कर देता है। दुखों से विचलित होकर वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता जो उसके दयाधर्म के विपरीत हो । वह धर्म के सामने देह को तुच्छ समझता है इसलिए देह के लिए वह धर्म का भोग नहीं देता है। उसकी दृष्टि में देह धर्म की रक्षा का साधन है। वह धर्म के लिए ही देह का उपभोग करता है। अगर देह से धर्म का भंग होता है तो वह देह को नहीं रखना चाहता है। धर्म महान है, देह नगण्य है।
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