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अष्टम अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
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कभी नया नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि संसार सदा बना रहता है । कोई भी समय ऐसा नहीं आता जब कि संसार किसी रूप में विद्यमान न हो । अतएव लोक अनन्त ( अन्तरहित ) है ।
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उक्त वादियों में जो लोक की आदि मानते हैं वे लोक को सान्त भी मानते हैं और जो वादी लोक को अनादि मानते हैं वे इसे अनन्त स्वीकार करते हैं । कतिपय वादी क्षर और अक्षर उभयरूप लोक मानते हैं। जैसा कि वे कहते हैं:
द्वावेव पुरुष लोके क्षरश्चाक्षर एव च क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।
अर्थात- लोक में क्षर (विनाशी) और अक्षर (अविनाशी ) दोनों ही पुरुष हैं। सभी भूत तर है और जो कूटस्थ है वह अक्षर कहा जाता है।
ऊपर लोक के विषय में प्रवादियों की विभिन्न मान्यताएँ बतायी गई हैं। इसके बाद सूत्रकार आत्मा के विषय में वादियों में विभिन्न प्रवादों का निर्देश करते हैं। यहाँ आत्मा का अर्थ आत्म-क्रिया से है। एक ही क्रिया को एक वादी शुभकार्य मानता है, दूसरा वादी उसे ही अशुभ मानता है, एक वादी जिसे कल्याण रूप मानता है उसी क्रिया को दूसरा वादी पापरूप कहता है । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ने सर्व आरम्भ परिग्रह का त्याग करके प्रव्रज्या अङ्गीकार की । इस प्रव्रज्या स्वीकार करने को एक वादी कहता है कि यह बहुत अच्छा किया जो सर्वसङ्ग का त्याग करके महाव्रत स्वीकार किये । इसी को दूसरा कहता है कि "तुमने बहुत बुरा किया जो मृगलोचना स्त्री का त्याग किया । सन्तति उत्पन्न किए बिना ही ज्या लेना पाप है । तुम गृहस्थाश्रम के पालन में असमर्थ होने से ही साधु बने हो । यह अच्छा नहीं है । इस प्रकार एक ही क्रिया के विषय में ये वादी विवाद करते हैं। अपने मनमाने कथनों द्वारा पाप-पुण्य की व्याख्या करते हैं । कतिपय वादी कहते हैं कि मोक्ष है। कोई कहते हैं कि मोक्ष नहीं है । कतिपय वादी नरक के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं जबकि कई वादी नरक का निषेध करते हैं ।
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इस प्रकार सूत्रकार ने विविध दर्शन, मत, सम्प्रदाय और धर्मों की मान्यताओं का दिग्दर्शन कराया है। ये मान्यताएँ परस्पर विरोधी हैं अतएव दर्शनों, धर्मों, मतों और पन्थों में सर्वदा विवाद होता रहता है। लेकिन वास्तविक एवं तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाय तो यह प्रतीत होगा कि ये सभी सत्यरूपी सूर्य की प्रकट या अप्रकट रश्मियाँ हैं । जब इनका समन्वय किया जाता है तभी ये पूर्ण सत्य को स्पर्श कर सकती है, अन्यथा नहीं। सूर्य की एक किरण को ही पूर्ण सूर्य समझ लेना जैसे अज्ञानता है। उसी तरह अन्यदृष्टियों का अपलाप करके अपने मनमाने तत्त्व को ही सम्पूर्ण सत्य मान लेना गहरी अज्ञानता ही है । जब कोई व्यक्ति अपने माने हुए पक्ष में ही पूर्ण सत्यता का आरोप करता है तब उसमें रहा हुआ आंशिक सत्य भी दूषित हो जाता है ।
जैनदर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त विश्व के समस्त धर्मों, दर्शनों और मतों का समन्वय कर देता है । वह समस्त वादों का निराकरण कर देता है । जिस प्रकार एक निपुण न्यायाधीश परस्पर विवाद करते हुए वादी एवं प्रतिवादी का न्यायसंगत फैसला देकर उनके विवाद का शमन करता है, इसी तरह जैनदर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त सभी वादियों के विवाद का अन्त कर देता है । जिस प्रकार एक न्यायी पिता अपने सभी पुत्रों पर एक समान दृष्टि रखता है वह किसी पर न्यूनाधिक बुद्धि नहीं रखता। इसी तरह स्याद्वाद सभी दृष्टियों को समरूप से स्वीकार करता है। इस तरह जैन धर्म के इस सिद्धान्त में सभी
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