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.. [आचाराङ्ग-सूत्रम् ___कर्मों का सर्वथा निष्पीड़न तो चौदहवें गुणस्थान में किये जाने वाले शैलेशीकरण अवस्था में ही होता है । तेरहवें संयोगकेवलि-गुणस्थान के अंत में योगों का निरोध किया जाता है । मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को सर्वथा रोक देना योग का निरोध करना कहलाता है। शुक्लध्यान के तृतीय भेद सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति के द्वारा काययोग को भी रोक दिया जाता है और चतुर्थ भेद समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाती के द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया तक का भी निरोध कर लिया जाता है और अ, इ, उ, ऋ, ल इन पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने ही समय का शैलेशीकरण होता है । इस अवस्था में सभी योग रुक जाते हैं और श्रात्मा पर्वत (शैल ) की तरह अकम्पित हो जाता है अतएव इसे शैलेशीकरण कहा जाता है । इस शैलेशीकरण में अन्त में आत्मा चार अघातिक कर्मों से भी मुक्त हो जाता है और कर्मलेप से सर्वथा छूटकर निष्कर्मा–सिद्ध बन जाता है।
____ तात्पर्य यह है कि प्रारम्भ में अल्प, पश्चात् अधिक इस तरह क्रम से बढ़ते हुए एक दिन सर्वथा कर्मों का निष्पीड़न कर देना चाहिए । कमों के निष्पीड़न के उद्देश्य से ही साधक को सभी क्रियाएँ करनी चाहिए। सूत्रकार ने यह क्रम इसलिए बताया है कि जगत् में ऐसे अनेक दृष्टान्त देखे गये हैं जिनमें व्यक्ति प्रथम तो बड़े उत्साह और उमङ्ग के साथ बड़े वेग से काम प्रारम्भ करते हैं लेकिन थोड़े ही समय में उनका उत्साह एकदम मन्द हो जाता है और वे काम को एकदम छोड़ देते हैं। कहीं साधक का ऐसा हाल न हो इसलिए सूत्रकार ने प्रारम्भ में अल्प, पश्चात् विशेष इस क्रम से धीरे २ आगे बढ़ते हुए एक दिन सर्वथा कर्मों का निष्पीड़न कर देना चाहिए ऐसा सूत्रकार ने फरमाया है । असंयम को छोड़कर और उपशम को प्राप्त करके तपश्चरणादि के द्वारा अपने कर्मों का आपीड़न, प्रपीड़न और निष्पीड़न करना चाहिए।
कर्मों का निष्पीड़न करने के लिए किन किन गुणों की आवश्यकता है सो अब सूत्रकार फरमाते हैं:-वीर साधक को शान्तचित्त से जीवन-पर्यन्त संयम में प्रेम धारण कर, आत्मलीनता साध कर, समिति
और ज्ञानादि गुणों से युक्त होकर यत्नपूर्वक वर्ताव करना चाहिए । सूत्रकार ने कर्म-क्षय करने की योग्यता वाले के गुणों को बताते हुए पहिला विशेषण 'वीर' दिया है । इसका कारण यह है कि जो वीर होगा वही कर्मों का विदारण कर सकता है, कायर नहीं । कायरों द्वारा इस मार्ग का आचरण नहीं हो सकता। वे तो इसे देखकर दूर से ही भागते हैं। जो शूरवीर होते हैं वे ही इस मार्ग का आनन्द ले सकते हैं क्योंकि यह धर्म शूरवीरों द्वारा ही प्ररूपित हुआ है। महावीर के धर्म का पालन वीर ही कर सकते हैं । यहाँ वीर का अर्थ शारीरिक वीर नहीं लेकिन आत्मिक वीर से है । वस्तुतः बाह्य वीरता सच्ची वीरता नहीं है क्योंकि सैकड़ों नहीं, हजारों नहीं लेकिन करोड़ों योद्धा एक आत्म-बली के सामने नत मस्तक हो जाते हैं । लंका का अधिपति महा योद्धा रावण अपने लाखों योद्धाओं के सहित आत्म-बलवती सीता के आगे निष्प्रभ हो जाता है । इससे सिद्ध होता है कि सच्ची वीरता शारीरिक वीरता नहीं है अपितु आत्मिक वीरता ही सच्ची वीरता है । जिसमें आत्म-बल है वही साधक साधना के मार्ग में आगे बढ़ सकता है । जिसमें यह बल नहीं है वह संयम में पद-पद पर परीषह और उपसर्गों से पीड़ित होने पर दुखी होगा और संयम की
आराधना नहीं कर सकेगा। अतएव कर्म क्षय करने के लिए सर्व प्रथम गुण 'वीर' बनना है। सच्चा श्रात्मवीर ही कर्मों का विदारण कर सकता है । जो वीर है वह कभी संयम में ग्लानि का अनुभव नहीं कर सकता अतएव वह सदा अविमना (शान्तचित्त) रहता है । जिनका चित्त चञ्चल है, जो अल्पमात्र निमित्तों के मिल जाने से क्षुब्ध बन जाते हैं, या जो इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति रखते हैं वे साधक साधना के योग्य नहीं हैं। वही साधक साधना की आराधना कर सकते हैं जिनका चित्त चञ्चल नहीं है, जो इन्द्रियों के विषय में अनुरक्ति नहीं रखते हैं और जो संयम की आराधना में अनुरक्त रहते हैं । संयम के प्रति
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