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[श्राचाराग-सूत्रम् पलिबिंदिय बाहिरंग च सोयं, निकम्मदंसी इह मचिएहिं, कम्माणं सफलं दगुण तो निजाइ वेयवी।
__ संस्कृतच्छाया–यस्स नास्ति पुरा पश्चादपि मध्ये तस्य कुतः स्यात् ? स हु प्रज्ञानवान् बुद्धः प्रारम्भोपरतः सम्यगेतदिति पश्यत । येन बन्धम्, वधं, घोरं, परितापञ्च दारुणं (अवाप्नोति ) परिच्छिन्द्य बाह्यच्च स्रोतः निष्कर्मदी इह मत्र्येषु, कर्मणाम् सफलत्वं दृष्ट्वा तस्मानिर्याति वेदवित् ।
शब्दार्थ-जस्स=जिसको। पुरा-पूर्वभव में। नत्थि सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हुआ। पच्छा-आगामी भव में भी प्राप्त होने वाला नहीं । तस्स-उसको । मज्झे इस मध्यकाल में । कुत्रो कहाँ से । सिया होगा ? से हु-वही। पन्नाणमंते तत्त्वदर्शी । बुद्धे और विद्वान् है ।
आरंभोवरए जो सावध अनुष्ठान से रहित है। एयं-यह । सम्म-सम्यक है । ति इस प्रकार । पासह देख । जेण=क्योंकि हिंसा से । बंध-बन्धन । वहंबध । घोरं भयंकर । परितापं= शारीरिक व मानसिक दुख प्राप्त होता है। बाहिरंग-बाह्य । च-और अन्तरंग। सोयं-पाप के कारणों को । पलिबिंदिय-तोड़कर । इह मच्चिएहि इस मृत्यु लोक में । निकम्मदंसी निष्कर्मदर्शी बनना चाहिए । कम्माणं-कों को । सफलं-सफल । दहण-जानकर। वेयवी-तत्त्वज्ञ । तो कर्म के कारणों से । निजाइ-दूर रहता है।
भावार्थ-जिसने पूर्वभव में धर्माराधना नहीं की और भविष्य में भी धर्मसाधना हो सके ऐसी योग्यता नहीं प्राप्त की वह वर्तमान काल में धर्माराधन किस तरह कर सकेगा ? क्योंकि सावध प्रवृत्ति द्वारा जीवात्मा को बन्ध, वध, संताप इत्यादि भयंकर दुख सहन करने पड़ते हैं ऐसा समझ कर ज्ञानवान् और तत्त्वज्ञ पुरुष ऐसी सावध प्रवृत्ति से संदा दूर रहते हैं । उनका यह व्यवहार कितना सुन्दर और सम्यक् है । हे साधको ! तुम भी बाहरी और भीतरी प्रतिबंधों को काटकर पाप कर्मों से परे होकर और मोक्ष की तरफ ध्यान देकर संयम में आगे बढ़ो । किए हुए कर्मों का फल अवश्य मिलता है यह जानकर तत्त्वज्ञ पुरुष कर्मबन्धन के कारणों से सदा दूर रहते हैं।
विवेचन-इस सूत्र में यह बताया गया है कि भावान्धकार में रहने वाले, अव्यवच्छिन्नबंध और अनभिक्रान्त-संयोग (बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग न करने वाले ) जीव त्रिकाल में भी सम्यक्त्व नहीं पा सकते हैं। जिसने पूर्वभव में सम्यक्त्व पाया है अथवा भविष्य काल में सम्यक्त्व प्राप्त करने की जिसमें योग्यता है वही वर्तमान भव में धर्माराधन कर सकता है। जिसने पूर्व जन्म में सम्यक्त्व नहीं पाया और भविष्य में होने वाले भव में भी सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता नहीं पायी वह क्त्तमान भव में भी सम्यक्त्व नहीं पा सकता है । जिस तरह अभव्य जीव न तो पूर्वभव में समकित प्राप्त करते हैं और न ागे के भव में प्राप्त कर सकेंगे अतएव वे वर्तमान भव में भी नहीं पा सकते हैं । जिसने एकबार समकित प्राप्त किया है, वह समकित भले ही मिथ्यात्व के उदय से चला जाय तदपि अपार्द्ध-पुद्गल
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