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[आचाराङ्ग-सूत्रम्
वीर बनकर स्वाभाविक रूप से आने वाली मृत्यु का स्वागत करना चाहिए । जो साधक इस अवस्था में अपने चित्त की समाधि को भंग नहीं होने देता वही संलेखना का सफल आराधक होता है।
संलेखना के अभिलाषी मुनि का चौथा गुण है-बाह्य-श्राभ्यन्तर उपधि का परित्याग। बाह्य वस्तुओं का त्याग किए बिना सभी प्रात्मलीनता नहीं प्राप्त हो सकती है । बाह्य पदार्थों के प्रति आसक्ति या ममत्व बना रहता है तो आत्मिक शान्ति नहीं मिल सकती है। संलेखना तो कर ली और चित्त में पदार्थों का मोह रहा हुआ है तो वह संलेखना किसी काम की नहीं है । वह तो केवल शुष्क क्रियामात्र है। इसलिए साधक मुनि को उपकरण और शरीर के प्रति मोह नहीं रखना चाहिए और आभ्यन्तर उपधिकषाय आदि का सर्वथा परिहार करना चाहिए । तभी संलेखना की आराधना हो सकती है।
पञ्चम सद्गुण है-अन्तःकरण की विशुद्धि । संलेखना करने के पश्चात् हृदय में किसी प्रकार के संकल्पों-विकल्पों को स्थान नहीं देना चाहिए । सब प्रकार के द्वन्द्व और शंकाओं से रहित होकर केवल
आत्म स्वरूप में लवलीन होना चाहिए। संकल्प-विकल्पों और शंकाओं से अन्तःकरण दूषित होता है। उसमें विकारों की उत्पत्ति हो सकती है अतः विकल्पजाल से दूर रहकर श्रात्म-चिन्तन करना चाहिए। इस तरह आत्मा को विकार-विहीन और निर्मल बना लेना चाहिए । इन गुणों से युक्त होने पर ही संलेखना सफल हो सकती है।
संलेखना करते हुए यदि साधक को ऐसा मालूम हो जाय कि उसके जीवन का शीघ्र ही अन्त कर देने वाला कारण उपस्थित हो गया है तो उसे किसी भी तरह की व्याकुलता न लाते हुए संलेखना काल में ही भक्ति-परिज्ञा मरण आदि का आराधन कर लेना चाहिए। ऐसा करने वाला साधक ही मतिमान मुनि है।
टीकाकार ने छठी गाथा का ऐसा भी अर्थ किया है कि पूरी तरह संलेखना नहीं हो पाने के पूर्व ही यदि मुनि के देह में वात आदि का उपद्रव हो जाय और यदि वह शीघ्र प्राणों का अन्त करने वाला मालूम हो समाधिमरण से मरने की अभिलाषा से उस उपद्रव को शान्त करने के लिए एषणीय विधि से अभंगन वगैरह का आश्रय लेना चाहिए। उपद्रव दूर होने पर पुनः विधिपूर्वक संलेखना करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि वातादि के उपद्रव के कारण साधक बेभान हो जाता है उसे किसी तरह का विवेक नहीं रहता है अत: उस अवस्था में मृत्यु को प्राप्त करना समाधिमरण नहीं है इसलिए समाधिमरा से मृत्यु को प्राप होने की कामना से उस उपद्रव के समय उसे शान्त करने का एषणीय उपाय किया जाय कोई अनुचित नहीं है । उपद्रव के शान्त होने पर पुनः संलेखना करना चाहिए ।
___ संलेखना से शुद्ध होने पर और मरण-काल उपस्थित होने पर क्या करना चाहिए सो आगे बताया गया है:
गामे वा अदुवा रगणे, थंडिलं पडिलेहिया । अप्पपाणं तु विनाय, तणाई संथरे मुणी ॥७॥ प्रणाहारो तुयट्टिजा, पुट्ठो तत्थऽहियासए। नाइवेलं उवचरे, माणुस्सेहिं विपुट्ठवं ॥८॥
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