Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 664
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नवम अध्ययन चतुर्थ उद्देशक ] www.kobatirth.org इति नवममध्ययनम् समाप्तम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir — नयविचार— ग्रन्थ के अन्त में नयों का विचार करने की परिपाटी है। वैसे तो नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत-यों सात नय हैं तदपि यहाँ ज्ञान और क्रिया इन दो नयों में ही सबका समावेश कर लिया जाता है। ज्ञाननय का अभिप्राय यह है कि- -ज्ञान ही प्रधान है, क्रिया नहीं । क्योंकि हेय का परित्याग और उपादेय का उपादान आदि सब प्रवृत्तियाँ ज्ञानाधीन ही हैं। ज्ञान के होने से ही क्रिया सार्थक हो सकती है। ज्ञान के अभाव में क्रिया करने से कोई लाभ नहीं होता अतः ज्ञान का प्राधान्य है। क्रियान्य का अभिप्राय यह है कि क्रिया का प्राधान्य है, ज्ञान का नहीं। क्योंकि क्रिया के करने से ही फल की प्राप्ति हो सकती है, जानने मात्र से नहीं । क्रिया के बिना ज्ञान विफल है । इत्यादि पहले इस विषय कहा जा चुका है। ये दोनों नय परस्पर निरपेक्ष हों तो मिध्या हैं। यदि सापेक्ष हैं तो दोनों सत्य हैं। वस्तुत: ज्ञान और क्रिया का समन्वय ही विवक्षित कार्य की सिद्धि करने वाला होता है । प्रस्तुत श्राचाराङ्ग भी ज्ञानक्रियात्मक उभयरूप है। शास्त्र की प्रवृत्ति मोक्ष के लिए है और मोक्ष की सिद्धि ज्ञान और क्रिया के समन्वय से है अत: ज्ञान और श्राचार- दोनों की श्राराधना करनी चाहिए। ऐसा करने से ही सच्चिदानन्दमय स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है । इति शम् ! शुभं भूयात् ! For Private And Personal [ ६२१

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