Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 599
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५५६ ] [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम् इस रोग से मुक्त हो जाऊँ तो इसका सेवन करूँगा अन्यथा नहीं" । जब श्रावक भी ऐसा प्रत्याख्यान करता है तो जिनकल्पी उच्च साधक ऐसा प्रत्याख्यान कैसे कर सकता है ? वह तो उच्चकोटि का करेगा; इसलिए यहाँ पादपोपगमन की अपेक्षा इत्वर समझना चाहिए। पादपोपगमन में इधर-उधर चलना-फिरना भी निषिद्ध है परन्तु इत्र मरण में मर्यादित किए हुए क्षेत्र में हलन चलन, चलना-फिरना किया जा सकता है इसलिए पादपोपगमन की अपेक्षा यह इत्वर कहा गया है। कहा भी है: पच्चक आहारं चञ्विहं नियमो गुरुसमीवे । इंगियदेसंमि तह चिट्ठपि नियमत्रो कुणइ ॥ उत्तर परिश्रत्तर काइगमाई विणा कुणइ । मिह पचि ण अन्नजोगेण धितिब लिओ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थात् — गुरु के समीप नियमपूर्वक चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है और मर्यादित स्थान में चेटा भी नियमित करता है । करवट बदलना अथवा उठना या शारीरिक हाजत (पेशाब आदि) भी स्वयं करता है । धैर्य, बलयुक्त मुनि सर्व कार्य अपने आप करे, दूसरों की सहायता न ले । यह इङ्गितमरण का रूप है। इत्वरमरण की विधि इस प्रकार है-प्राम, नगर, खेड़ा, कर्बट, मडम्ब, पाटण, बन्दरगाह, खान, श्रम सन्निवेश, निगम अथवा राजधानी में प्रवेश करके तृणों की याचना करनी चाहिए और एकान्त स्थान का - जहाँ कोई प्राणी न हो - अच्छी तरह प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके तृण का संस्तारक ( शय्या) बिछाकर इङ्गितमरण करना चाहिए । सामान्य लोगों की वस्ती को ग्राम कहते हैं । जहाँ कर न हो उसे नगर कहते हैं । मिट्टी का बना प्राकार (कोट- चाहार दिवारी) हो वह खेड़ा । जहाँ छोटा प्राकार हो वह कर्बट | जिसके ढाइ कोस ( गव्यूति) के अन्तर पर दूसरा कोई ग्राम न हो वह मडम्ब । पत्तन दो प्रकार के होते हैं - जलपत्तन और स्थलपत्तन । काननद्वीप आदि जलपत्तन है और मथुरा आदि स्थलपत्तन हैं । द्रोणमुख बन्दरगाह को कहते है - जहाँ जल और स्थल दोनों प्रकार के प्रवेश और निर्गम के मार्ग हों; सोना-चांदी आदि की खान को श्राकर कहते हैं। तापस के रहने के स्थान को श्राश्रम कहते हैं। यात्रानिमित्त श्राये हुए मनुष्यों के डेरेपड़ाव को सन्निवेश कहते हैं। जहाँ अधिक व्यापारियों की वस्ती हो उसे निगम (मंडी) कहते हैं । जहाँ राजा निवास करता हो उसे राजधानी कहते हैं । सूत्रकार इङ्गित मरण का विधान करते हैं। इससे यह न समझ लेना चाहिए कि वे परोक्ष रूप में अपघात करने का कहते हैं। शरीर की उपयोगिता पूर्ण होने पर मृत्यु से भेंट करना अपघात नहीं कहा जाता है | अपघात करने वाला तो अपने देह का दुरुपयोग करता है जब कि समाधिमरण से मरने वाला शरीर से संग्रम की साधना का पूरा कार्य लेकर उसकी निरर्थकता होने पर उसका त्याग करता है । पदार्थ का दुरुपयोग करना भयंकर अपराध है इसलिए अपघात को नरक का कारण कहा है। इङ्गित मरण के लिए सूत्रकार आहार के त्याग के साथ कषायों के त्याग पर भार देते हैं इससे यह फलित होता है कि साधक का यह मरण शान्ति और समाधिपूर्वक तथा स्वेच्छा से होना चाहिए । बहुत बार प्रायः साधक प्रतिष्ठा के लिए ऐसा करते हैं परन्तु ऐसा करने से उन्हें शान्ति नहीं मिलती लेकिन For Private And Personal

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