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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
संस्कृतच्छाया - लोके जानीहि महिताय दुःखं, समयं लोकस्य ज्ञात्वा अत्र शस्त्रोपरतः ।
शब्दार्थ — लोयंसि लोक में । दुक्खं दुःख का कारण अज्ञान या मोह । श्रहियाय = safer करने वाला है । जाण = यह जानो । लोगस्स = संसार का । समयं = श्राचार | जाणित्ता= जानकर । इत्थ सत्थोवरए - संयम के बाधक शस्त्रों से दूर रहना चाहिए ।
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भावार्थ — संसार में दुख का कारण अज्ञान अथवा मोह है और यह अहित करने वाला है ऐसा समझो । लोक के हिंसामय आचार को जानकर संयम के बाधक रूप हिंसा, असत्य आदि शस्त्रों से दूर रहना चाहिए ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में संसार के दुखों का मूल कारण बताया गया है। वस्तुतः संसार के दुखों का मूल कारण तथा सभी अहितों का मूल अगर कोई है तो वह अज्ञान ही है। वास्तविक स्वरूप से ज्ञान रहना ही दुख है। जब तक प्राणी को आत्मस्वरूप का तथा वस्तु स्वरूप का पूरा पूरा सच्चा ज्ञान नहीं हो जाता तब तक वह सुख का अनुभव ही नहीं कर सकता है । वस्तु-स्वरूप को नहीं समझना ही
ज्ञान है और इसी अज्ञान से दुखों का जन्म होता है । प्राणी अपने चैतन्य पर मोह का पर्दा डाल देता है जिससे वस्तु का सच्चा स्वरूप उसे दिखाई नहीं देता और बाह्य एवं कृत्रिम स्वरूप को देखकर वह उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए अधीर हो जाता है। बस यही दुखों के जन्म की कहानी है । प्राणी का महामोह (ज्ञान) दुखों का जनक है । यही अहित का मूल है । यह अज्ञान ही गाढ़ भावनिद्रा है । यही नरकादि दुखों का कारण है। जब वस्तु के बाह्य स्वरूप को तथा श्राभ्यन्तर स्वरूप को भलीभांति समझने की योग्यता आती है, जब सदसत् का विवेक करना आ जाता है और जब गाढनिद्रा दूर होकर सम्यक्त्व ( सच्चा • ज्ञान ) प्राप्त होता है तभी प्राणी सुख के सन्मुख होता है और तभी उसका हित होता है। ज्ञान प्रकाश है और ज्ञान अंधकार है। यह जानकर मिध्यात्व-रूप गाढ भावनिद्रा को त्याग कर सम्यक्त्व के सन्मुख होना चाहिए ।
संसारी प्राणी भोगों की अभिलाषा से प्राणियों की हिंसारूप कर्मों को संचित करके नरकादि स्थानों में महान् वेदनाएँ उठाते हैं और वहाँ से किसी प्रकार निकल कर धर्म के कारण श्रार्यक्षेत्र, मनुष्यजन्म आदि में जन्म ग्रहण करते हैं लेकिन पुनः धर्म-आराधन के योग्य स्थानों में भी प्राणी महामोह के वशीभूत होकर ऐसे २ सावद्य पापकारी कर्म करते हैं जिससे वे निरन्तर नीचे और नीचे चले जाते हैं और अनन्त संसार-सागर में डूब जाते हैं । यह अज्ञानियों का आचार है । इस अज्ञानियों के आचार को जानकर सुख के अभिलाषी प्राणी को सदा इस हिंसा से बचना चाहिए। अथवा "समयं लोयस्स जाणित्ता” इस पद का ऐसा भी अर्थ हो सकता है कि संसार में सभी जीवों को समभाव से अथवा अपने समान समझ कर हिंसा से बचना चाहिए। संसार का छोटा सा प्राणी भी मरण से डरता है, सुख का अभिलाषी है और दुख से द्वेष करने वाला है और सदा जीना चाहता है ऐसा समझ कर किसी भी प्राणी को दुख नहीं पहुँचाना चाहिए। द्रव्य और भाव रूप दोनों प्रकार के शस्त्रों से उपरत होना चाहिए और धर्म- जागरण करना चाहिए। षट्काय लोक का स्वरूप जानकर संयम के बाधक शस्त्रों से दूर रहना ही सच्चा मुनिधर्म है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह ये संयम के लिए शस्त्र हैं। इसलिए संयमियों को अपने संयम की रक्षा और पालना के लिए इन शस्त्रों से दूर रहना चाहिए । अज्ञान के कारण ये भावशस्त्र ही
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