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[भाचाराग-सूत्रम्
रहती है। दुनिया पर भीषण तवाहियाँ गुजरती हैं। संसार के मानवी अगर अहिंसा की शरण लें तो ही वे शान्ति के दर्शन पा सकते हैं।
वैसे तो आंशिक अहिंसा को सभी वादियों ने स्वीकार की है तदपि इस विषय में वादियों में विभिन्न प्रकार के मत हैं । लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि जो धर्म जितना अधिक अहिंसा को अपनाता है वह धर्म उतना ही अधिक उन्नत लोकोपयोगी और कल्याणकारक है। जैनधर्म अथवा अर्हन्त के प्रवचन में अहिंसा का इतनी सूक्ष्मता के साथ निरूपण है कि विश्व के अन्यान्य धर्मों में कहीं भी ऐसा निरूपण देखने को नहीं मिलता । जैनधर्म का विश्व-कल्याण कारक अहिंसा का सिद्धान्त, उसकी श्रेष्टता और विश्व धर्म होने की योग्यता का प्रबल परिचायक है।
प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार वादियों के पूर्वपक्ष को बतला कर उसका सचोट एवं युक्तिसंगत खंडन करके अहिंसा के सिद्धान्त को पुष्ट करते हैं। साथ ही इस सूत्र से यह ध्वनित होता है कि उस काल में हिंसा का प्राबल्य था। यज्ञों और धर्म के नाम पर पशुओं का ही नहीं मनुष्यों तक का बलिदान किया जाता था । अज्ञान और स्वार्थान्ध व्यक्ति देव-देवियों के सामने और यज्ञों में हिंसा करने में धर्म है, ऐसा प्रचार करते थे। आज भी कतिपय देव-देवियों के स्थान पर बलिदान दिया जाता है यह तात्कालीन घातक प्रथा का अवशेष है । श्रमण भगवान महावीर ने इसके विरुद्ध आन्दोलन खड़ा किया और इस प्रथा को नष्ट करने का भरसक प्रयत्न किया। उन्होंने सच्चे आर्य-धर्म अहिंसा का प्रचार किया। धर्म के नाम पर की हुई हिंसा, हिंसा नहीं है इस प्रकार कितनेक वादियों का मिथ्या प्रलाप है अतएव उसकी प्रसांगिक चर्चा की जाती है।
धूममार्गानुयायी मीमांसकों का यह कथन है कि जो हिंसा गृद्धता और व्यसन रूप से की जाती है वही हिंसा है । वही पापबन्ध का कारण है । वेदविहित हिंसा तो धर्म का हेतु है। इससे देवता और अतिथियों की प्रीति प्राप्त होती है। यज्ञादि करने से वृष्टि होती है यह उसका साक्षात्फल दृष्टिगोचर होता है । इमी तरह अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि करने से देवता प्रसन्न होते हैं और इससे परराष्ट्रविजय और सन्तानादि का लाभ होता है । मीमांसकों का यह कथन उनकी कुसंस्कारिता और अज्ञान का द्योतक है। क्योंकि उनके वचन में ही विरोध आता है। वेदविहित हिंसा को हिंसा मानना और उसको धर्म का कारण मानना एक ही स्त्री को बन्ध्या और माता कहने के समान है। जिस प्रकार जो माता है वह वन्ध्या नहीं
और जो वन्ध्या है वह माता नहीं हो सकती इसी प्रकार जो धर्म है वह हिंसा नहीं और जो हिंसा है वह धर्म नहीं हो सकता । हिंसा और धर्म में परस्पर विरोध है । ऐसी स्थिति में हिंसा चाहे वह वेदोक्त हो अथवा अन्यशास्त्र विहित हो, वह धर्म कदापि नहीं हो सकती। वैदिक हिंसा को हिंसा न मानने वालों को पूछना चाहिए कि वैदिक हिंसा में क्या विशेषता है जिससे वह हिंसा हिंसा नहीं है ? क्या वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके की जाने वाली हिंसा से प्राणी का घात नहीं होता है ? क्या उसे घोर दुख नहीं होता है ? ये दोनों बातें होती ही हैं तो फिर उसे हिंसा न मानने का क्या कारण है ? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर में मीमांसक यह कहते हैं कि जिस प्रकार लोहे का पिण्ड होता है वह जल में तैर नहीं सकता लेकिन जब उसको संस्कारित करके उसके पत्र बना लिए जाते हैं तो वे तैरने लग जाते हैं। अथवा विष मारक स्वभाव वाला है तदपि मंत्रादि के प्रभाव से वह गुण के लिए हो जाता है, एवं अग्नि का स्वभाव जलाने का है लेकिन सत्य के प्रभाव से वह शीतल हो जाती है इसी प्रकार यद्यपि यज्ञयागादि में हिंसा होती है लेकिन वैदिकमंत्रों के द्वारा संस्कारित होने से वह दोष-पात्र नहीं है।
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