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तृतीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
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इस तरह नियुक्तिकार ने भाव -शीत और भाव - उष्ण का स्पष्टीकरण किया है । इसी भाव-शीत और भाव उष्ण से यहां प्रयोजन है ।
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इस अध्ययन में भाव-शीत और भाव उष्ण का प्रतिपादन करने का अभिप्राय यह है कि विकास मार्ग में प्रगति करने वाले साधक को शीत स्पर्श और उष्ण स्पर्श-जनित वेदनाओं का अनुभव होता है । ऐसे समय में शरीर और मन के अनुकूल सुख और शरीर व मन के विपरीत दुःख का हर्ष - विषाद से रहित होकर सहन करना ही साधक का कर्त्तव्य है । यह बताने के लिए इस अध्ययन में उपदेश दिया गया है ।
वैसे शीत और उष्ण दोनों परस्पर विरोधी गुण हैं परन्तु शीत और उष्ण का वेदन करने वाला मन तो एक ही है। जो मन ठण्ड का अनुभव करता है वही मन उष्णता का भी अनुभव करता है । जो वस्तु किसी के लिये सुख उत्पन्न करती है वह वह वस्तु किसी दूसरे के लिए या उसी के लिए दुःख भी उत्पन्न कर सकती है । यह सर्व प्राणियों का अनुभव है । परन्तु कभी कभी यह मन ऐसी स्वाभाविक स्थिति का भी अनुभव करता है जो हर्ष - शोक और शीत-उष्ण से परे है। जब साधक को ऐसी अवस्था प्राप्त हो जाती है तो वह एकदम जागृत हो जाता है और स्वाभाविक शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है हर्ष - शोक से परे रह सकने की शक्ति प्रकट करने के लिए ही यह अध्ययन कहा गया है क्योंकि वस्तुतः यह समभाव का विकास ही मोक्ष का हेतु है ।
स्थितप्रज्ञता, समभाव और निरासक्त योग ये प्रायः समानार्थक शब्द ही हैं। इनका जितना २ विकास होता जायेगा उतना उतना ही मोक्ष नजदीक आता जायगा । अतएव समभाव का विकास करने के लिये उपदेश प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं:
:
सुत्ता मुणी, सया मुणिणो जागरंति ।
संस्कृतच्छाया सुप्ता मुनयः, सततं मुनयः जायति ।
शब्दार्थ — अमुखी - ज्ञानी - जन । सुत्ता-सदा सोये हुए हैं। मुणिणो - ज्ञानी जन । सया=अनवरत | जागरंति - जागृत रहते हैं ।
भावार्थ - अज्ञानी - जन द्रव्य से निद्रारहित हों तो भी सोये हुए हैं और ज्ञानी-जन द्रव्य से सोये हुए हों तो भी अनवरत जागृत ही हैं ।
विवेचन - द्वितीय अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि विषय - कषायादि से दुखी बना हुआ प्राणी दुखमय संसार में ही परिभ्रमण करता है । यही बात आचार्य यहाँ अध्ययन के प्रारम्भ में फरमाते हैं कि भावसुप्त अज्ञानी प्राणी भी इसी संसार-सागर में गोते लगाते रहते हैं । यह अज्ञानरूपी महा-ज्वर संसार के दुखों का प्रधान हेतु है । कहा है कि:
नातः परमहं मन्ये जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगो दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥
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