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[ आचाराङ्ग-सूत्रम
अणासायमाणे वज्झमाणाएं पाषाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे संदी एवं से भवइ सरणं महामुखी ।
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संस्कृतच्छाया— अणुविचिन्त्य मितुर्धर्ममाचक्षमाणो जात्मानमाशातयेत् न परमाशातयेत् नो अन्यान् प्राणिनः भूतान् जीवान् सत्वानाशातयेत् सोऽनाशातकः अनाशातयन् वध्यमानानां प्राणिनां भूतानां जीवानां सत्वानां यथा स द्वीपोऽसन्दीनः एवं स भवति शरणां महामुनिः ।
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शब्दार्थ — भिक्खू - सुनि | अणुवीद = विचार कर | धम्ममाइक्खमाणे धर्म का उपदेश देते हुए । नो अत्ताणं श्रसाइजा = अपनी आत्मा की आशातना न करे । परं श्रसाइजा= दूसरों की भी आशातना न करे । अन्नाई पाणाई जात्र सत्ताई नो आसाइज्जा अन्य प्राणी, भूत, जीव और सत्वों की शातना न करे । से अणासायए = वह स्वयं श्राशातना न करता हुआ । अणासायमाणे = दूसरों से आशातना नहीं करता हुआ । वज्झमाणाणं पाणाणं जाव सत्ताणं = मारे जाने वाले प्राणियों यावत् सत्वों के लिए। जहा से दीवे असंदी = जैसे जल से लिप्त न होने वाला दीन द्वीप है । एवं से भवइ सरणं महामुखी - इस तरह वह महा मुनि शरणभूत होता है ।
भावार्थ – पूर्वापर विचारपूर्वक धर्मोपदेश देता हुआ मुनि यह ध्यान रक्खे कि वह उपदेश देते हुए अपनी आत्मा की शातना न करे, दूसरे की आत्मा की आतना न करे और अन्य किसी प्राणी, भूत, जीव और सत्य की आशातना न करे । इस तरह स्वयं आशा तना न करने वाला और दूसरों से शाना न करने वाला वह महा मुनि वध्यमान प्राणी, भूत, जीव और सत्वों के लिए असंदीन द्वीप की तरह शरणभूत होता है ।
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विवेचन - पूर्व सूत्र में पर- कल्याण के लिए मुनि को उपदेश-प्रदान करने के लिए कहा गया है अब इस सूत्र में सूत्रकार त्यागी मुनि के लिए उपदेश-प्रदान की मर्यादा का विधान करते हैं। कहीं उपदेश देने के पीछे लगकर वह त्यागी साधक अपने संयम की साधना को प्रति सावधान न हो जाय इसलिए सूत्रकार ने यहाँ उपदेश देने की मर्यादा का कथन किया है ।
त्यागी मुनि को यह कदापि नहीं भूल जाना चाहिए कि उसका प्रधान कर्त्तव्य संयम की साधना है । उपदेश-प्रदान तो उसका सहायक अंग है । इसलिए उपदेश देते हुए अपनी आत्मा का अहित न हो इस पर पूरा लक्ष्य रखना चाहिए। इस रीति से और इस मर्यादा में रहकर उपदेश दिया जाना चाहिए कि जिसके द्वारा उसकी मूल संयम साधना में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचे। अपनी मूल वस्तु को ठेस पहुँचा कर दूसरे को उपदेश देना ठीक नहीं है । इसलिए इस तरह और इस रीति का उपदेश प्रदान करे जिससे उसकी साधना में किसी तरह का विघ्न न हो । अपने दैनिक संयम कृत्यों में और कालानुकाल की जाने वाली क्रियाओं में भंग या विक्षेप डालकर उपदेश नहीं देना चाहिए।
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