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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्:
[ शब्दार्थ - सदृशपाठ पहिले जाने से यहां पुनः शब्दार्थ की आवश्यकता नहीं रहती है आव श्यकता होने पर पृथ्वीकाय के प्रकरण में देखें; विशेषता - पृथ्वी की जगह अनि समतें ] ।
भावार्थ - हे जम्बू ! श्रसंयम अनुष्ठान से लज्जित हुए इन शाक्यादि भिक्षुओं को तू देख | ये नामधारी अणगार कहते हैं कि हम अणगार हैं तो भी अनिकाय का विविध प्रकार के शस्त्रों द्वारा आरम्भ ( हिंसा) करते हैं और साथ ही कीड़ी आदि अनेकों त्रस जीवों की भी हिंसा करते हैं ।
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तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिया । इमस्स चैव जीवियस्स, परिवंदणमा पूयाए, जाइमर णमोयणाए दुक्खपडिघा यहेउं से सयमेव गणि सत्यं समारंभति, रोहिं वा श्रगणिसत्यं समारंभावेइ, अण्णे वा श्रगणिसत्थं समारभमाणे समणुजानाति तं से अहियाए तं सेोहिए (३४)
संस्कृतच्छाया- -तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । प्रस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थं दुःखप्रतिघातहेतुं स स्वयमेवाभिशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा अग्निशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान्वा अग्निशस्त्रं समारभमाणान्स मनुजानीते, तत्तस्याहिताय, तत्तस्याबोधिलाभाय ।
भावार्थ -- अग्निकाय के समारंभ के विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) समझायी है । तदपि प्राणी - जीवन के निर्वाह के लिए, प्रशंसा, मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण से छूटने (धर्म) के लिए और दुःख का निवारण करने के लिए स्वयं अनिकाय की हिंसा करते हैं, दूसरों से करवाते हैं और करते हुए को अच्छा समझते हैं परन्तु यह हिंसा उनके कल्याण के लिए तथा अबोध (मिथ्यात्व ) के लिए होती है ।
विवेचन - भगवान् महावीर के समय में जल से शुद्धि मानने वाले, और पंचाग्नि जलाकर तप करने से धर्म होता है यह मानने वाले बहुसंख्या में थे । भगवान् महावीर ने जल और अग्नि की सचेतनता सिद्ध करके इनकी हिंसा से धर्म हो ही नहीं सकता यह सिद्धान्त प्रचलित किया ।
सेतं संबुज्झमाणे श्रायणीयं समुद्वाय, सोचा भगवओो, श्रपगाराणं वा प्रति इहमेगेसिं पायं भवति, एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु रिए । इत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं श्रगणिकम्मसमारंभेणं, अगणिसत्थं समारंभमाणे रणे गरूवे पाणे विहिंसइ (३५)
संस्कृतच्छाया - - स तत् सम्बुध्यमानः श्रादानीयं समुत्थाय श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां वा श्रन्तिके hi ज्ञातं भवति, एष खल ग्रन्थः, एष खलु मोहः, एष खल मारः, एष खल नरकः । इत्येवमर्श गृद्धो स्लोकः यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः अग्निकर्म समारम्भेण अग्निशस्त्रं समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनः हिनस्ति ।
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