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पश्चम अध्ययन द्वितीयोद्देशक ]
[३६५ यह औदारिक देह अशुचि एवं व्याधि का पिण्ड होने के साथ ही साथ भिदुर, विध्वंसनशील, अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, चयापचय वाला और नाशवान है । यह औदारिक नर-पिण्ड चाहे जिस तरह पुष्ट बनाया गया हो, विविध औषधि और रसायनों के द्वारा सुदृढ़ बनाया गया हो तदपि वह मिट्टी के कच्चे घड़े की तरह छिन्न-भिन्न होने वाला है अतएव भिदुरधर्म वाला है । इसके हाथ-पांव आदि अवयव विध्वंस को प्राप्त होते हैं अतएव विध्वंसनशील है। इस शरीर का कोई नियम नहीं है कि यह कब नष्ट होगा अतएव यह अध्रव है। इसकी उत्पत्ति और विनाश होता है अतएव यह अनित्य है। यह शरीर एक रूप में कायम नहीं रहता है इसलिए अशाश्वत है। इस शरीर की वृद्धि और हानि होती है इसलिए यह चय-अपचय स्वभाव वाला है। इस शरीर की विविध अवस्थाएं होती है अतएव यह विपरिणाम (विनाश) स्वभाव वाला है। ऐसे क्षणभङ्गुर शरीर पर कैसा ममत्व ! कैसी मूर्छा ! कैसा अहंकार !!
शरीर के वास्तविक-स्वरूप के चिन्तन द्वारा इस पर से आसक्ति हटानी चाहिए । सूत्रकार ने इस आसक्ति को हटाने के लिए ही यह उपदेश फरमाया है। शरीर सम्बन्धी ममता का परित्याग कर देने पर अन्य पदार्थों की ममता स्वतः नष्ट हो जाती है। शरीर की ममता ही अन्य पदार्थों की ममता का मूल है। मूल के उखड़ जाने पर वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता । शरीर जड़ है, मैं चेतन हूँ; शरीर विनश्वर है, मैं अविनाशी हूँ; शरीर रूपी है, मैं अरूपी हूँ; शरीर मलिन है, मैं निर्मल हूँ इत्यादि विवेक-विचार से आत्मा
और देह की भिन्नता का चिन्तन करना चाहिए । शारीरिक ममता के परित्याग का यह सुन्दर उपाय है। इस प्रकार रूप का और मिले हुए सुअवसर का विचार करने के लिए सूत्रकार फरमाते हैं । यह देह तो असार है और इससे सार निकालने का चारित्ररूप सुअवसर प्राप्त हुआ है अतः असार से सार प्राप्त करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए।
जो साधक शरीर के स्वरूप का और प्राप्त सुअवसर का विचार करके आत्मा के ज्ञान और सुखरूप गुणों में रमण करता है वह निरासक्त त्यागी अनन्त-संसार में परिभ्रमण नहीं करता है, वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है, वह मृत्युञ्जय बन जाता है । यह कह कर सूत्रकार ने यह बताया है कि देह स्वयं नाशवान् है अतएव देह से मिलने वाला सुख भी क्षणिक है। महत्त्व की बात यह दिखाई गई है कि सुख देना यह देह का विषय नहीं है । विषयासक्ति के कारण देह द्वारा जो सुख का अनुभव होता है वह सुख नहीं; सुखाभास है। इन्द्रियजन्य एवं देहजन्य सुखाभास को सुख मानना मूढ़ता है । ज्ञान, विज्ञान, एवं सुख देना यह आत्मा का धर्म है। अतएव आत्मा की ओर प्रवृत्त होना ही सच्चा सुख का मार्ग है।
श्रावंती केयावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुं वा अj वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा एएसु चेव परिग्गहावंती एयमेव एगेसि महन्मयं भवइ, लोगवित्तं च णं उवेहाए, एए संगे अवियाणो । से सुपडिबद्धं सूवणीयं ति नचा पुरिसा परमचक्खू विपरिकमा, एएसु चेव बंभचेरं ति बेमि ।
संस्कृतच्छाया-यावन्तः केचन लोके परिग्रहवन्तः तदल्यं वा बहु वा, अणु वा स्थूलं वा चित्तवदा अचित्तवद्वा परिग्रहवन्तः एतेषु चेव, एतदेवैकेषां महद्भयं भवति, लोकवित्तं ( वृत्तं वा ) चोत्प्रेक्ष्य,
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