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[प्राचाराङ्ग-सूत्रम् ___भावार्थ-- स्वजन एवं धनादि की आसक्ति के कारण यह प्राणी स्वजनों के लिए धन कमाने
और उनकी रक्षा करने के लिए रात और दिन चिन्ता करता हुआ, काल और अकाल की परवाह नहीं करता हुआ, कुटुम्ब और धनादि में लुब्ध बनकर, विषयों में चित्त लगाकर, कर्तव्य और अकर्तव्य का विचार किए बिना निर्भयता से संसार में लूट-खसोट मचाता है और बार-बार अनेक प्राणियों की हिंसा करता है।
विवेचन-रागानुबन्ध के कारण प्राणी निरन्तर अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण और द्रव्योपार्जन करने के लिए चिन्ता करता रहता है । किन उपायों द्वारा अधिक से अधिक द्रव्य संग्रह किया जाय इन्हीं विचारों में वह डूबा रहता है। धन प्राप्त करने के लिए वह अपने शरीर की भी परवाह नहीं करता, काल
और अकाल का विचार तक नहीं पाता । धनोपार्जन की तमन्ना में ठंड, धूप, वर्षा, विषममार्ग और भूखप्यास का दुःख भी वह सहन करता है, धन प्राप्त होता हो तो चाहे मध्याह्न की भीषण गर्मी हो, चाहेमाघ मास की भयंकर सर्दी हो, चाहे मूसलधार वर्षा हो रही हो, प्रभात हो यासायंकाल, मध्याह्न हो या अर्द्धरात्रि का भयंकर अंधकार हो, प्राणी किसी की भी पर्वाह नहीं करता है। धन के पीछे वह खाना और पीना, सोना और अन्य शारीरिक धर्मों को भी भूल जाता है। मग्मण सेठ के पास करोंड़ों का धन था, समुद्रों से पार द्वीपों में तथा देश-विदेश में उसका खूब व्यापार चलता था। उसकी यौवनावस्था भी व्यतीत हो चुकी थी, तो भी अर्थोपार्जन में उसका इतना अधिक ममत्व था कि सात दिन रात्रिपर्यंत मुसलधार वर्षा होने के कारण प्राणियों का इधर उधर संचरण भी रुक गया ऐसी भीषण अवस्था में भी वह मम्मण सेठ नदी में बहकर आते हुए काष्ठ को लेने की प्रवृत्ति में प्रवृत्त हुश्रा । हाय ! इस लोभ का भी क्या पार है !
आसक्ति परिग्रह का मूल कारण है । ज्यों ज्यों परिग्रह बढ़ता है त्यों त्यों प्रेम, प्रमोद, मैत्री और माध्यस्थवृत्ति आदि उच्च सात्विक गुणों का विनाश होता है और माया, प्रपंच, छल-कपट, स्वार्थ, ठगाई इत्यादि दुर्गुणों की वृद्धि होती है, इसीसे यह संसार नरक के समान भयंकर बन जाता है । परिग्रह बढ़ाने के लिए भयंकर से भयंकर पापकर्म करता हुआ प्राणी नहीं संकुचाता है। लोभ के वशीभूत बना हुआ प्राणी कर्तव्य और अकर्तव्य, हित तथा अहित का भान भूल कर गला काटना, चोरी करना, अमर्यादित लूट-खसोट मचाना, अपने तनिक से स्वार्थ के कारण दूसरों को धोखे में उतारना आदि २ भीषण पापकर्म निस्संकोच होकर कर डालता है। इसीलिए भगवान ने फरमाया है कि 'लोहो सवविणासणो' लोभ सर्वस्व नाश करने वाला है। लौकिक कहावत है कि 'लोस पाप का बाप है।' परिग्रही कदापि सच्चा अहिंसक नहीं हो सकता है क्योंकि अमर्यादित परिग्रह रखना भी हिंसा है। अतः आत्मार्थी पुरुषों को आसक्ति का और उसके फलस्वरूप परिग्रह का क्रमशः निरोध करना सीखना चाहिए।
इस तरह विविध प्रपंचों में पड़े हुए प्राणी की आसक्ति और रागानुभाव क्रमशः मन्द पड़े और प्राणी असीम पुए योपार्जित मानव शरीर को व्यर्थ ही ऐशोआराम और संसार के मोहक भूलभुलैये में ही पूरा न करके इस दुर्लभ मानवजन्म का यथोचित लाभ उठावे इस हेतु से मानवजन्म की अल्पस्थिति का वर्णन करते हुए उसकी बहुमूल्य उपयोगिता समझ कर क्षण के लिए भी प्रमाद न करने का उपदेश फरमाते हैं
अप्पं च खलु पाउयं इहमेगेसि माणवाणं, तंजहा-सोयपरिणाणेहि परिहीयमाणहिँ, चक्खुपरिगणाणेहिं परिहीयमाणेहिं, घाणपरिणाणेहिं परि
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