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द्वितीय अध्ययन द्वितीय उद्देशक ]
[ Poe
लोभ के चले जाने पर मोहनीय क्षीण हो जाता है। मोहनीय कर्म के क्षय होने पर घाति कर्मों का क्षय हो जाता है इससे केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट हो जाते हैं तथा भवोपग्राहिक कर्मों का क्षय हो जाता है । इसलिये लोभ पर विजय प्राप्त करने वाले को अकर्मा कहा गया है।
अहो य राम्रो परितप्यमाणे, कालाकालसमुट्ठाई, संजोगट्टी, अट्ठालोभी, बालुपे, सहसाकारे विविट्टचित्ते एत्थ सत्थं पुणो पुणो ।
संस्कृतच्छाया – अहश्च रात्रिञ्च परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी अालंपः सहसाकार: विनिविष्टचित्तः अत्र शस्त्रं पुनः पुनः ।
[ शब्दार्थ प्रथम उद्देशयत् ]
भावार्थ - ज्ञानी जीव काल और अकाल की परवाह किये बिना, माता-पिता और पत्नी आदि ' तथा धन में गाढ़ आसक्ति रखकर रातदिन चिन्ता की भठ्ठी में जलता रहता है, विश्व में निर्भय होकर लूट मचाता है और विषयों में दत्तचित्त होकर बिना विचारे हिंसक वृत्ति से अनेकों दुष्कर्म कर डालता है।
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विवेचन - पूर्ववत् ( प्रथम उद्देशक के अनुसार )
से बायबले, से नाइबले, से मित्तवले, से पिच्चवले, से देवबले, से रायवले, से चोरबले, से प्रतिहिबले से किविणवले, से समणबले इच्चे हिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कज्जइ, पावमुक्खुत्ति मन्त्रमाणे, अदुवा संसार |
संस्कृतच्छाया—तद् आत्मबलं, तद् ज्ञातिबलं, तद् मित्रचलं, तत्प्रेत्यबलं तद्देवबलं तद् राजबलं, तच्चौरबलं, तदातर्थिवलं तत्कृपणवलं तच्छ्रमणबलं ( मे भविष्यतीति कृत्वा ) इत्यादिभिः विरूपरूपैः कार्यैः दादानं संप्रेक्ष्य भयात् क्रियते, पापमोक्षः इति मन्यमानोऽथवा श्राशंसायै ।
शब्दार्थ - से आयबले - उस शरीर को पुष्ट बनाने के लिए । से नायबले = जाति स्वजन का बल पाने के लिए । से मित्तत्रले = मित्रों का बल पाने के लिए | से पिचवले = परलोक में बल के लिए | देववले - देवताओं का बल पाने के लिए । से रायबले = राजा का बल पाने के लिए । से चोरबले = चौरों की चुराई वस्तु में भाग पाने के लिए । से अतिथिबले - अतिथियों का बल पाने के लिए | से किविणबले = कृपणों (भिक्षुक) का बल पाने के लिए। से समणवले = श्रमण साधुओं का बल पाने के लिए । इच्चेहिं = इन | विरूवरूवेर्हि = अनेक प्रकार के । कज्जेहिं = कामों द्वारा । दंडसमायाणं-हिंसा करते हैं। संपेहाए = विचार कर । भया=डरसे। कज्जइये हिंसक कार्य किये
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