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तृतीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
[२१३ .
भावार्थ-जो पुरुष दूसरों को होने वाले दुखों को जानता है वह वीर आत्म-संयम रखकर विषयों में नहीं फँसता हुआ पापकर्मों से दूर रहता है । जो विषयोपभोग के अनुष्ठान को शस्त्ररूप जानता है वही संयम को जानता है, जो संयम को जानता है वह विषयोपभोग के अनुष्ठान को शस्त्ररूप जानता है । कर्मरहित हो जाने पर किसी भी तरह का सांसारिक व्यवहार नहीं रहता है । कर्मों से ही सभी उपाधियां पैदा होती हैं।
विवेचन-इसके पूर्व के सूत्र में आत्म-द्रव्य और पर-द्रव्य का स्वरूप समझ कर हिंसादि आरम्भ से निवृत्त होने के लिए कहा गया है। प्रारम्भ को ही सब दुखों का उत्पादक माना है । जो प्राणी दूसरों के दुखों को भी अपने ही दुख के समान समझता है और 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के सिद्धान्तानुसार सभी प्रकार के प्रारम्भों से निवृत्ति करता है वही सचा खेदज्ञ है (ज्ञानी है)। अथवा जब व्यक्ति को प्रात्मद्रव्य और परद्रव्य की भिन्नता का ज्ञान होता है और मह मालूम होता है कि परद्रव्य से दुख उत्पन्न होता है तो उसे सच्चा ज्ञानी कह सकते हैं। इस प्रकार के सच्चे ज्ञान के बिना सञ्चावैराग्य नहीं प्रकट होता और सच्चे वैराग्य के बिना त्याग टिक नहीं सकता । इस प्रकार का ऊपरी त्याग पापकों से बचाने में असमर्थ होता है।
जब सच्चा विवेक और सच्ची खेदज्ञता प्राप्त होती है तब प्राणी आत्म-संयम रख सकता है और उस संयम के द्वारा विषयादि में नहीं फंसता हुआ सावद्य कार्यों से-पापकर्मों से दूर रहता है।
अब सूत्रकार आगे यह प्रतिपादन करते हैं कि विषय और संयम दोनों एक साथ नहीं रह सकते। संयम और विषयों में सहानवस्थान रूप विरोध है । जैसे जहाँ प्रकाश हैं वहाँ अन्धकार नहीं रह सकता और जहाँ अन्धकार है वहाँ प्रकाश नहीं रह सकता। उसी प्रकार जहाँ विषय हैं वहाँ संयम नहीं है और जहाँ संयम है वहाँ विषय किसी भी रूप में नहीं रह सकते । इसीलिये सूत्रकार फरमाते हैं कि जो विषयोपभोग के कार्य को प्रात्मा का हनन करने वाला शस्त्र मानता है वही व्यक्ति संयम की आराधना कर सकता है । वस्तुतः विषयों से उत्पन्न होने वाले भ्रामक सुख में सुख का अनुभव करना आत्मा का पतन करना है । जो व्यक्ति इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषयों पर रागद्वेष करता है वह आत्मा का हनन करता है । जो व्यक्ति इन विषयों को-विषयासक्ति को-आत्मा के लिए शस्त्र-रूप मानता है वही व्यक्ति अशस्त्र (संयम) को जान सकता है। वह संयम को आत्मा के लिए अशस्त्र मानता है क्योंकि संयमात्मा के लिए घातक न होकर पोषक होता है। जो व्यक्ति संयम को श्रात्मा का पोषक मानता है और उसकी आराधना करता है वह व्यक्ति प्रत्येक इन्द्रिय के विषयों को-उनमें होने वाली रागद्वेषात्मक बुद्धि को आत्मा के लिए घातक शस्त्ररूप जानता है। इस प्रकार सूत्रकार ने हेतुहेतुमद्भाव से संयम और विषयों का विरोध प्रकट किया है । अतएव आत्मार्थी पुरुषों को संयम की निर्मल आराधना के लिए विषयासक्ति से सर्वथा दूर रहना चाहिए।
"पज्जवजायसत्थस्स" इस पद का ऐसा भी अर्थ हो सकता है कि "शब्दादि पर्यायेभ्यस्तजनित रागद्वेषपर्यायेभ्यो वा जातं यज्ज्ञानावरणादि कर्म तस्य यच्छस्त्रं दाहकत्वात् तपस्तस्य खेदज्ञ” अर्थात्शब्दादि पर्यायों से और तजन्य रागद्वेष से उत्पन्न होने वाले ज्ञानावरणादि कर्म का शस्त्र-रूप-अर्थात् तप। जो तप का खेदज्ञ होता है वह संयम का खेदज्ञ है और जो संयम का खेदज्ञ है वह तप का खेदज्ञ है। जो इस प्रकार तप और संयम का ज्ञाता होता है वह सर्व प्रास्रवों का निरोध कर कर्मों का क्षय कर देता है।
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