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२६२ ].
- [आचाराक-सूत्रम्
- शब्दार्थ-जस्स=जिसके। इमा=यह । जाई=लोकैपणा । नत्थि नहीं है। तस्स= उसके । अण्णा=अन्य सावध प्रवृत्ति । को सिया-कहाँ से हो सकती है । जं एयं यह जो। परिकहिजइ कहा जाता है वह । दिटुं-केवल ज्ञान से देखा हुआ है । सुयं सुना हुआ है । मतं माना हुआ है। विएणायं जाना हुआ है । समेमाणाबाह्य पदार्थों में गृद्ध होने वाले । पलेमाणा= विषयों में लीन होने वाले। पुणो पुणो बार बार । जाइं पकप्पंति-जन्म मरण करते हैं । अहो अराओ य-रातदिन । जयमाणे-मोक्षमार्ग में यत्न करने वाले । धीरे-परीषह उपसर्गों में दृढता रखने वाले । सया-सदा । आगयपएणाणे विवेकशील साधक । पमत्तेप्रमादियों को । बहिया पास धर्म से बाहर देखे और। अपमत्ते अप्रमत्त होकर । सया-हमेशा । परिकमिजासि= पराक्रम करे।
भावार्थ-जिस साधक को लोकेषणा नहीं है उसके अन्य सावद्य प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? ( अथवा जिसके सम्यक्त्व रूप ज्ञाति नहीं है उसके अन्य शुभ प्रवृत्तियां कसे हो सकती हैं ? ) हे जम्बू! मैंने जो ऊपर कहा है वह सब भगवान् के द्वारा केवलज्ञान द्वारा देखा हुआ है, श्रोताओं द्वारा सुना हुआ है, भव्य जीवों द्वारा माना हुआ है और सर्वज्ञों द्वारा अनुभव किया हुआ है । जो व्यक्ति संसार में अत्यन्त आसक्ति रखते हैं तथा इन्द्रियों के विषय में लीन रहते हैं वे पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करते हैं। इस लिए रातदिन मोक्षमार्ग में यत्नशील तत्त्वदर्शी धीर साधक प्रमादियों को धर्म से बहिर्मुख जानकर स्वयं अप्रमत्त होकर मोक्षमार्ग में सावधानी से पराक्रम करे।
विवेचन-इस सूत्र में लोकैषणा को सावद्य प्रवृत्तियों का कारण कहा गया है। जो व्यक्ति अपने विवेक-चक्षुओं को बन्द करके मोहासक्त दुनिया का अनुकरण करता है वह श्रात्मिक सत्प्रवृत्ति कैसे कर सकता है ? दुनिया का-जड़ दुनिया का और आत्मधर्म का मार्ग ही निराला है। दोनों में छत्तीस के अंक के समान विपरीतता है। उत्तर और दक्षिण जितनाभेद है । जो दुनिया की देखादेखी करता है वह अन्य शुभ प्रवृतियाँ नहीं कर सकता । लोकैषणा का अर्थ दुनिया की तारीफ प्राप्त करना भी होता है। जो व्यक्ति यह विचारता है कि दुनिया मुझे अच्छा कहे, दुनिया मेरा आदर करे लोगों की दृष्टि में मैं अच्छा लगं-वह साधक भी साधना में सफल नहीं हो सकता अपितु यह पतन का कारण है। लोकैपणा दुनिया की तारीफ की भावना-बहि ष्टि का परिणाम है। यशोलालसा और कीर्ति-लोभ से किया हुआ काम हितकारी नहीं हो सकता । जिस साधक की दृष्टि आत्मोन्मुख है वह कभी लोकैषणा की भावना नहीं करता। जहाँ तक बाह्यदृष्टि है वहाँ तक आत्मधर्म का रहस्य नहीं समझा जा सकता है अतएव सूत्रकार फरमाते है कि लोकैषणा वाला साधक यात्मोपयोगी शुभप्रवृत्ति नहीं कर सकता।
अथवा इस सूत्र का अर्थ इस तरह भी किया जा सकता है कि जिसके अहिंसामय धर्म की श्रद्धा रूप सम्यक्त्व नहीं है इसके अन्य शुभ प्रवृत्तियाँ कैसे हो सकती हैं ? सब शुभ प्रवृत्तियों के मूल में सम्यक्त्व होना ही चाहिए। जिसके सम्यक्त्व नहीं है उसकी सभी प्रवृत्तियाँ निष्फल होती हैं। सम्यक्त्व की नींव पर ही धर्म-महल टिका हुआ है । अतएव सम्यक्त्व पूर्वक सभी क्रियाएँ की जानी चाहिए।
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