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षष्ठ अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
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संस्कृतच्छाया - सन्ति प्राणिनः वासकाः, रसगाः, उदके, उदकचरा आकाशगामिनः, प्राणिनः ( अपरान् ) प्राणिनः क्लेशयन्ति । पश्य लोके महद्भयं । बहुदुःखा खल जन्तवः, सक्ताः कामेषु मानवाः, अबलेन वधं गच्छन्ति शरीरेण प्रभंगुरेण, श्रार्तः स बहुदुःखः इति बालः प्रकरोति, एतान्रोगान् बहून् ज्ञात्वा श्रातुराः परितापयेयुः नालं पश्य अलं तव एभिः, एतत्पश्य मुने ! महद्भयं नातिपातयेत् कञ्चन ।
शब्दार्थ - वासगा - शब्द कर सकने वाले द्वीन्द्रियादि । रसगा-कटु-तिक्त आदि र को जानने वाले संज्ञी जीव । उदए = जलकाय के जीव । उदए चरा=जलचर जंतु । श्रागासमामिणो = आकाश में विचरने वाले पत्री । पाणा संति = इत्यादि प्राणी हैं । पाणा = ये प्राणी । पाणे एक दूसरे प्राणियों को । किलेसंति दुख देते रहते हैं । लोए महब्भयं = इसलिए लोक में महाभय प्रवर्तित होता है | पास हे शिष्य ! तू देख । जन्तवो = प्राणियों के । बहुदुक्खा - दुख की कोई सीमा नहीं है | माणवा मनुष्य । कामेसु - विषयभोगों में । सत्ता आसक्त हैं । अबले = बलरहित निःसार | पभंगुरेण = क्षणभंगुर । सरीरेण = शरीर के लिए । वहं गच्छन्ति = अन्य जीवों को मार कर स्वयं वध को प्राप्त होते हैं । बाले विवेकहीन । श्रट्टे व्याकुल होकर । बहुदुक्खे = बहुत दुख पाने वाले । इह इस प्रकार | पकुव्वइ = करते हैं। एए रोगा इन उत्पन्न हुए रोगों को। बहू=बहुत जानकर | आउरा = आतुर होकर । परियावए बहुत जीवों की हिंसा करता है। नाल पास - हे शिष्य ! ऐसा करने पर भी वे रोग को मिटाने में समर्थ नहीं हैं । अलं तवेएहिं तुम ऐसी प्रवृत्ति न करना | मुणी हे मुने । एयं महब्भयं = इस हिंसा को महाभय रूप | पास = समझो। कंच और किसी की । नाइवाइज - हिंसा न करनी चाहिए ।
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भावार्थ - इस संसार में द्वीन्द्रियादि, संज्ञी, जलकाय के जीव, जलचर जन्तु तथा पक्षी परस्पर एक दूसरे को पीड़ा पहुँचाते रहते हैं । इससे संसार में महाभय प्रवर्तित हो रहा है। संसार में फँसे हुए प्राणियों के दुख की कोई सीमा नहीं है । यह जानकर भी मूढ मनुष्य कामभोगों में श्रासक्त बना हुआ हैं । वह अपने निःसार क्षणभंगुर शरीर के सुख के लिए पापकर्म करके स्वयं दुखी होता है । अपनी विवेकहीनता के कारण बहुत दुख पाने वाले अज्ञानी जीव जब अपने कर्म के फलस्वरूप रोग उत्पन्न होते हैं तब खूब चिन्तातुर बनकर ( दुख का कारण न ढूँढते हुए ) अन्य जीवों को परिताप पहुँचाते हैं ( औषधि के लिए प्राणी वध करते हैं ) । परन्तु ऐसा करने पर भी ( कर्मोदय से ) रोग तो मिटते ही नहीं । इसलिए हे ! तू ऐसी प्रवृत्ति न करना । ( अपने स्वार्थ के लिए दूसरे को पीड़ा पहुँचाना महाभयंकर है ) मुनि साधक दूसरों को पीड़ा हो ऐसी प्रवृत्ति कभी न करे ।
विवेचन- न - इस सूत्र में सूत्रकार यह बताते हैं कि संसारी जीवों ने इस संसार को अत्यन्त भयं - कर स्थान बना रक्खा है । संसारी जीव अपनी हिंसक वृत्ति के द्वारा एक दूसरे को पीड़ा पहुँचाते हैं !
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