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[प्राचाराज-सूत्रम् __ अर्थात्-संसारान्तरवर्ती प्राणियों के लिए दुरतिक्रम-दुर्जय-अज्ञानरूपी महारोग ही संसार के दुखों का सबसे प्रधान कारण है। इससे बढ़कर और कोई दूसरा कारण नहीं है। भाव-निद्रा ही संसार की जड़ है।
- निद्रा दो प्रकार की है-(१) द्रव्यनिद्रा (२) भावनिद्रा । द्रव्यनिद्रा देह और इन्द्रियों के श्रमनिवारण के लिए है। इस निद्रा से सोया हुया प्राणी शीघ्र जागृत हो जाता है। परन्तु जो भावनिद्रा से सोये हुए हैं वे जागृत मालूम होते हैं तदपि सुषुप्त ही हैं। अज्ञान से प्राप्त होने वाली चैतन्य की सुषुप्ति भावनिद्रा है । मिथ्यात्व-अज्ञानरूप महानिद्रा में सोये हुए संसारी प्राणी सद्-असद् के विवेक से विकल होने की वजह से भावनिद्रा से सुषुप्त हैं। इसके विपरीत कोई विरल विभूति अज्ञानरूपी अंधकार के दूर होने से तथा मोक्षमार्ग में सतत प्रवृत्ति करने से एवं हिताहित का विवेक कर सकने की योग्यता होने से सदा जागृत रहती हैं वे द्रव्यनिद्रा-युक्त होने पर भी सदा जागृत ही हैं। संसार के अन्य प्राणी द्रव्यनिद्रायुक्त नहीं होने पर भी सदा भावनिद्रा में सोये हुए हैं अतएव वे संसार में होने वाले जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, दुख, संकट आदि के नाटकों को देखते हुए भी नहीं देख सकते हैं। "पश्यन्नपि न पश्यति" आँख खुली होने पर भी अज्ञान का पर्दा ऐसा पड़ा रहता है कि देखने योग्य वस्तु नहीं देख सकते हैं। जो अनुभव प्राप्त करने योग्य है वह प्राप्त नहीं होता है यही भावनिद्रा है । भावनिद्रा और भाव-जागरण के विषय में नियुक्तिकार ने इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है:
सुत्ता अमुणो सया मुणो सुत्तावि जागरा हुँति ।
धम्मं पडुच्च एवं निदासुत्तेणं भइयव्वं ॥ अर्थात-अमनि-अज्ञानी गृहस्थ मिथ्यात्व से व्याप्त होने के कारण तथा हिंसादि श्रास्रव-द्वारों में प्रवृत्त होने के कारण हमेशा भावनिद्रा से सुप्त हैं और मुनि मिथ्यात्वरूप महानिद्रा के चले जाने से और सम्यक्त्वरूप प्रकाश के प्राप्त होने के कारण सदा जागृत ही हैं। यद्यपि मुनिजन संयम के आधारभूत शरीर की स्थिति के लिए निद्रावश होते हैं तदपि वे जागृत ही हैं। इस प्रकार धर्म के आश्रय से सुप्तअवस्था और जागृत अवस्था कही गई है। द्रव्यनिद्रा से सोये हए प्राणियों के लिए धर्म की भजना है अर्थात् धर्म हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है । यदि प्राणी भाव से जागृत है तो निद्रा से सुप्त होने पर भी धर्म होता है और यदि भाव से जागृत होने पर भी अत्यन्त गाढ़निद्रा और प्रमादवश हो जाता है तो धर्म नहीं होता है। जो द्रव्य और भावनिद्रा से सोये हुए हैं उनको तो धर्म नहीं ही होता है। यह भजना का अर्थ है । तात्पर्य यह है कि सदसद् का विवेक और धर्माराधन करना यह भाव जागरण है और मिथ्यात्व (अज्ञान ) में पड़ा रहना यह भावनिद्रा है । ज्ञानी मुनिजन सदा भाव-जागरण करते हैं। गीता में भी यही कहा गया है:
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ (गीता अ. २ श्लोक ६६) अर्थात्-सब लोगों के लिए जो रात है उसमें संयमी-स्थितप्रज्ञजागता है और जब समस्त प्राणी जागते रहते हैं तब ज्ञानवान् पुरुष को रात मालूम होती है। यह विरोधाभासात्मक वर्णन अलकारिक है। अन्धकार को अज्ञान और प्रकाश को ज्ञान कहते हैं । अर्थ यह है कि अज्ञानी लोगों को जो वस्तु अनावश्यक प्रतीत होती है वही ज्ञानियों के लिए आवश्यक होती है। जिसमें अज्ञानी लोग उलझे रहते हैं और उन्हें जो प्रकाश मालूम होता है वही ज्ञानी को अंधेरा मालूम पड़ता है अर्थात् वह ज्ञानी को अभीष्ट नहीं होता।
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