Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 603
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६०] [आचाराग-सूत्रम् को साधना के मार्ग में विशेष दृढ़ बनाती हैं। विशिष्ट दृढ़ता सम्पादन करने के आशय से ही प्रतिमाएँ धारण की जाती हैं। जिस साधक ने किसी विशिष्ट सीमा तक तन, मन और वचन पर काबू पाया होता है वही अभिग्रह और प्रतिमाएँ धारण कर सकता है । जो साधक वस्त्र आदि बाह्य उपकरणों को उत्तरोत्तर कम करता हुआ इस कोटि पर पहुँच गया है कि वह बिना वस्त्र के ही निर्वाह कर सकता है तो वह सर्वथा निर्वस्त्र रहने की प्रतिमा अंगीकार करता है । निर्वस्त्र रहते हुए तृण-स्पर्श, शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श का कष्ट सहना होता है. डाँस मच्छरों का उपद्रव सहना होता है और अन्य नाना प्रकार के अनुकूल-प्रतिकून परीषहों को सहना होता है। इन सब से अधिक महत्त्वपूर्ण बात लज्जा-परीषह को जीतने की है । लज्जा को जीत लेना बहुत कठिन है । शारीरिक कष्टों और वेदनाओं को सहन करने में जिस सामर्थ्य की आवश्यकता होती है उससे लज्जा-परीषह को जीतने में कहीं अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है । जो साधक लज्जालु स्वभाव वाला है अतः वह गुह्य प्रदेश के आच्छादन का त्याग करने में समर्थ नहीं है तो उसे कटि-बन्ध धारण करना कल्पता है । ऐसा साधक यह सोचता है कि मैं तृण वगैरह का तीक्ष्ण स्पर्श सहन कर सकता हूँ, शीत की वेदना सह सकता हूँ, कठोर उष्णता बर्दाश्त कर सकता हूँ, डाँसमच्छरों के डंसने की मुझे परवाह नहीं और भी निर्वस्त्रता से होने वाले विविध दुखों को सहन करने की शक्ति मुझ में है परन्तु मैं लज्जा ढाँकने के वस्त्र का परित्याग नहीं कर सकता । ऐसे साधक के लिए सूत्रकार यह विधान करते हैं कि उसे कटि-बन्ध ( चोलपट्टक ) धारण करना कल्पता है। टीकाकार कटि-बन्ध का परिमाण बताते हैं कि वह एक हाथ चार अङ्गुल विस्तार वाला और दीघता में कमर के प्रमाण का होना चाहिए । गणना प्रमाण से ऐसा एकवस्त्र रखना उसे कल्पता है। यदि वह साधक लज्जा परीषह को जीतने का सामर्थ्य रखता है तो उसे सर्वथा निर्वस्त्र होकर संयम की साधना करनी चाहिए । इस साधना में होने वाले तृणजन्य दुख, शीत और उष्णजन्य वेदनाएँ, डॉस-मच्छर का काटना, अन्य एक तरह या दूसरी तरह के परीषह और उपसर्गों को वह समभावपूर्वक सहन करे । ऐसा करने से वह कर्म-भार से हल्का हो जाता है और द्रव्य-उपधि से भी हल्का हो जाता है। यह महान तपश्चर्या है । इसकी सम्यक् प्रकार से आराधना करनी चाहिए । भगवान् के कथन के रहस्य को भलीभांति हयगम करके समभावपूर्वक साधना की सिद्धि करनी चाहिए। यहाँ यह विशेषरूप से ध्यान देने योग्य बात है कि वह निर्वस्त्र रहने वाला साधक अपने श्रापको बहुत ऊँचा मानकर अन्य वस्त्रधारी साधकों की हीलना न करे । वस्तुतः वस्त्रों के त्यागने या न त्यागने से लक्ष्य की सिद्धि नहीं होती परन्तु आत्मिक गुणों के विकास से ही आत्मा को ध्येय की प्राप्ति होती है। इसलिए वस्त्रधारण करने वाले और निर्वस्त्र रहने वाले साधकों में समभाव रखना चाहिए । निर्वस्त्र साधक को अपने आपको ऊँचा और वस्रधारी को हीन मानने की भूल नहीं करनी चाहिए । इसलिए सूत्रकार ने "सम्मत्तमेव समभिजाणिया" कह कर समभाव रखने का विशेषतया निरूपण किया है। भगवान के कथन को जानकर सब प्रकार से अपने प्राचार का पालन करना चाहिए। अब विशिष्ट अभिग्रहों का निरूपण करते हुए सूत्रकार कहते हैं जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-श्रहं च खलु अन्नसिं भिवखूणं असणं वा ४ श्राहटु दलइस्सामि श्राहडं च साइजिस्सामि १ । जस्स णं भिक्खुस्स For Private And Personal

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