________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
द्वितीय अभ्ययन पंचमोदेशक]
[१५३ "णाईए" इस पद का अर्थ ग्रहण न करे ऐसा उपर किया गया है । साथ ही यह भी संगत अर्थ है कि दूषित पाहार स्वयं खावे नहीं अन्य को खिलावे नहीं और खाते हुए अन्य को अनुमोदन नहीं दे।
शंका-"सव्वामगंध" इस पद में "श्राम" शब्द का अर्थ-अशुद्ध श्राहार और गंध शब्द का अर्थ पतिकर्म आधाकादि दोष पाला किया गया है। श्राधाकादि दोष वाला आहार भी अशुद्ध ही है अत: 'आम' शब्द से ही उसका ग्रहण हो जाता है तो 'गंध' पद अलग देने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-यह बात ठीक है कि अशुद्ध सामान्य के कारण "गंध” का भी "आम" शब्द में ग्रहण हो सकता है तो भी गंध पद पृथक् देने का अभिप्राय श्राधाकादि दोषों की विशेषता प्रकट करने का है। तात्पर्य यह है कि गंध शब्द से ( १ ) आधाकर्म (२) औद्देशिक (३) पूतिकर्म (४) मिश्रजात (५) बादरप्राभृतिका (६) अध्यवपूरक इन छह उद्गम दोषों को अविशुद्ध कोटि में मानकर ग्रहण किये हैं और शेष दोषों को 'आम' शब्द से गृहीत समझने चाहिए।
इस प्रकार, सब प्रकार के दूषित आहार को ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्यागना चाहिए । तथा निरामगंध होकर शुद्ध रीति से संयम का पालन करना चाहिए।
अदिस्समाणे कयविक्कएसु, से ण किणे न किणावए, किणंतं न समणुजाणइ। संस्कृतच्छाया-अदृश्यमानः क्रयविक्रययोः, स न क्रीणीयात्, न क्रापयेत्, क्रीणन्तम् न समनुजानीयात् ।
शब्दार्थ-कयविक्कएसु-खरीदने और बेचने की क्रियाओं में । अदिस्समाणे अदृश्य रहता हुआ। से वह साधु । ण किणे-खरीदे नहीं। न किणावए दूसरों से खरीदावे नहीं। किणं-खरीदते हुए को । न समणुजाणइ अनुमोदन दे नहीं।
भावार्थ-मुनि क्रयविक्रय से अलिप्त रहे । वह (धर्मोपकरण भी) खरीदे नहीं, अन्य से स्क निमित्त खरीदा हुआ ग्रहण करे नहीं और खरीदते हुए को अच्छा समझे नहीं।
विवेचन-पूर्व के सूत्र में 'श्राम' ग्रहण करने से क्रीतकृत आदि का निषेध हो जाता है तो भी अल्प बुद्धि वाले प्राणी क्रीत को विशुद्ध कोटि के अन्तर्गत जानकर उसमें प्रवृत्ति न कर लें इसलिए पुनः कोतदोष का निषेध करने के लिए यह सूत्र कहा गया है।
वैसे तो मुमुक्षु साधु अकिंचन होते हैं। उनके लिए क्रयविक्रय आदि सांसारिक क्रियाएँ संगत हो ही नहीं सकती क्योंकि क्रयविक्रय के प्रपंच में पड़ने पर ममत्व, बन्धन और परिग्रहादि महान दोषों से बचना असंभव है । अतः अन्य वस्तुओं के क्रयविक्रय का कार्य मुनिधर्म से किसी भी अंश में लंगत नहीं हो सकता है अतः यह बात तो स्वयं फलित हो जाती है तो सूत्रकार के निषेध करने का कोई खामबाशय होना चाहिए। वह श्राशय यह है कि मुनि अन्य वस्तुओं का क्रयविक्रय नहीं करे सो तो नहीं करें परन्तु धर्मोपकरण भी स्वयं खरीदे नहीं, खरीदावे नहीं और खरीदते हुए अन्य को अच्छा समझे नहीं । साधु के
For Private And Personal