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तृतीय अध्ययन द्वितीयोद्देशक ]
[:२१७ संस्कृतच्छाया-जातिञ्च वृद्धिश्वेहार्य ! पश्य, भूतैः (सम) नानाहि प्रत्युपेक्ष्य सातं । तस्मादतिविद्यः परममिति ज्ञात्वा सम्यक्त्वदर्शी (सन्) न करोति पापं । .
शब्दार्थ-अज=हे आर्य । इह इस संसार में । जाई-जन्म । च और । वुडिंढ च= वृद्धावस्था के दुखों को । पासे देख । भूएहि अन्य प्राणियों के साथ । सायं अपने सुख का । पडिलेह-विचार करके । जाणे अपने समान उसको भी जाने । तम्हा इसलिये। अतिविज्जेतत्ववेत्ता मुनि । परमं कल्याणकारी मोक्षमार्ग को। णचा=जानकर । सम्मत्तदंसी=सम्यग्दृष्टि होता हुआ । पावं-पापकर्म । न करेह नहीं करता है। - भावार्थ-हे आर्य शिष्य ! इस संसार में जन्म और जरा के दुखों को देख । संसार के सभी प्राणियों को अपने समान समझ । जैसे तुझे सुख प्रिय है और दुख अप्रिय है उसी तरह अन्य प्राणियों को भी सुख प्रिय और दुख अप्रिय है ऐसा विचार कर तु अपना वर्ताव बना । यही परम कल्याणकारी मोक्ष का मार्ग है । इसे जानकर तत्वदर्शी साधक पापकर्म नहीं करता है ।
विवेचन-संसार की नाट्यशाला में खेले जाते हुए दुखमय नाटक में जन्म और जरा का मुख्य हाथ है । सारा संसार जन्म और जरा के रोग से पीड़ित हैं । जन्म-धारण करते समय असंख्य सूइयों की नोकों को शरीर में चुभाने पर जो वेदना होती है उससे कई गुनी तीव्र वेदना होती है । इसी तरह वृद्धावस्था के शारीरिक और मानसिक दुखों का तो प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है । इस अवस्था में अपना सबसे प्यारा साथी शरीर भी धोखा दे जाता है। शरीर जर्जरित हो जाता है और मानसिक संतापों का बोझ बढ़ जाता है।
जन्म और जरा के विषय में विचार करना मानों कर्मवाद के सिद्धान्त का निरीक्षण करना है। 'कर्म का अविचल सिद्धान्त यह बात बताता है कि क्रिया का फल उसके कर्ता को प्रत्यक्ष या परोक्ष में अवश्य मिलता ही है । जो जैसा कर्म करता है उसे आगे या पीछे उसका फल भोगना ही पड़ता है। कर्म के राज्य में सिफारिश और रिश्वतों का बोलबाला नहीं है। वहाँ राजा और रंक का भेद नहीं है । प्रत्येक प्राणी को उसके शुभाशुभ कमों के अनुसार उसका फल भोगना ही पड़ता है। जन्म और मरण अर्थात् यह सर्व संसार-भ्रमण कर्म के कारण ही है । इस बात को समझ कर जन्म-मरण रूपी दुखों से मुक्त होने के लिए यही उपाय है कि उपयोगमय जीवन व्यतीत किया जाय । उपयोगमय जीवन से कर्मबन्धन का प्रभाव हो जाता है और कर्मों के अभाव हो जाने से जन्म, जरा और मरण से छुटकारा मिल जाता है। श्रात्मा सभी तरह की प्राधि, व्याधि एवं उपाधि से मुक्त हो जाता है और अपने सहजानन्द स्वरूप में स्थित हो जाता है। ... इस सहजानन्द स्वरूप को प्राप्त करने का उपाय भी सूत्रकार ने इसमें बताया है । इस स्थिति पर पहुँचने का सबसे सुन्दर और सीधा मार्ग अहिंसक-वृत्ति और अहिंसक व्यवहार है। संसार में दिव्य श्रानन्द का अनुभव कराने वाली शक्ति अहिंसा ही है। सुख-शान्ति की सरिता का उद्गम अहिंसा से है। 'अहिंसा की लोकपावनी पवित्र गंगा दुखसंतप्त दुनिया के अन्तर को अपनी सुधोपम धारा के द्वारा सींच सकती है। परन्तु अपनी अज्ञानता के कारण दुनियाँ दिन प्रतिदिन इस अहिंसा से दूर भागती जा रही है।
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