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.. चतुर्थ अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
[२८७ लेकिन दण्डादि से प्रहार करना, किसी को गुलाम बनाना, दूसरों पर अभिमान से हुकूमत चलाना, दूसरों को बन्धन में बाँधना, नौकर-चाकरों के प्रति दुर्व्यवहार करना, शारीरिक व मानसिक संताप देना ये सभी हिंसाएँ हैं।
पुष्प-पाँखुडी जहाँ दुभाय तहाँ जिनवर की आज्ञा नाय । - फूल की पंखुड़ी को कष्ट पहुँचाना भी हिंसा है तो अहिंसक व्यक्ति किस तरह किसी के मनको
या शरीर को पीड़ा पहुँचा सकता है ? अहिंसा का उपासक मन से भी किसी को कष्ट पहुँचाने की भावना नहीं कर सकता । अपने आश्रय में रहे हुए नौकर-चाकर या पशुओं पर अत्याचार नहीं कर सकता । वह समझता है कि सब जीव मेरे समान ही सुख चाहते हैं, उनमें भी चेतना तत्त्व है, वे भी मनःशक्ति वाले हैं और वे भी जीवन की इच्छा रखते हैं। ऐसा समझकर वह प्रत्येक के साथ मित्र, बन्धु और पालक का नाता रखता है । यही अहिंसा है। जहाँ हुकूमत, ममता, परिग्रह और आसक्ति हो वहाँ अहिंसा नहीं रह सकती है। सच्चे अहिंसक के प्रत्येक कार्य में अहिंसा की व विवेक की झलक दिखाई देती है। वह विलासी और कायर नहीं हो सकता । वह अपने स्वार्थ के लिए दूसरे के हितों का भोग नहीं लेता।
___ अहिंसा के रहस्य को न समझने के कारण अहिंसा के नाम पर हिंसा का नाटक होता हुआ दिखाई देता है। धर्म के नाम पर पशुओं का बलिदान किया जाता है। धर्म के लिए की जाने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है यह कहा जाता है परन्तु यह सब अहिंसा के विकार हैं। अनुकम्मा और दान निषेधक तेरह पन्थ भी विकृत अहिंसा का फल है। वह अहिंसा का अजीर्ण है। यह देखने में आता है कि सूक्ष्म जीवों के प्रति दयाभाव बताने वाले, मनुष्यों के प्रति हमदर्दी बताने से भी कोसों दूर रहते हैं। सच्चे अहिंसक की वृत्ति और कार्य में अहिंसा भरी रहती है, हिंसा का लेश भी नहीं रहता। अहिंसक कहलाने वालों में से किसी की क्रिया में हिंसा न हो तो भी वृत्ति में हिंसा देखी जाती है, किसी की वृत्ति में हिंसा नहीं होती किन्तु क्रिया में देखी जाती है यह अवांछनीय है । सच्चा अहिंसक वृत्ति और कार्य में हिंसा से निर्लेप रहता है।
प्रश्न हो सकता है कि प्रथम शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में अहिंसा का कथन कर दिया गया है उसे पुनः कहने की और सम्यक्त्व के निरूपण के अधिकार में उसे दोहराने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान यह है कि जैनधर्म का प्राण ही अहिंसा है। जैनेन्द्र-प्रवचन अहिंसामय ही है। अहिंसा की
आधार-शिला पर ही जैनधर्म का महल खड़ा है अतएव जगह-जगह उसका वर्णन किया जाता है ताकि विनेय (शिष्य ) जन अहिंसा में सदा प्रवृत्त रहें। दूसरी बात यह है कि प्रथम अध्ययन में विवेक रूप
अहिंसा का वर्णन है और इसमें आचरणीय-व्यवहार के सर्व क्षेत्रों में व्यापक-अहिंसा का कथन है। प्रथम अध्ययन में षट्काय में जीव है यह सिद्ध कर अहिंसा का विवेक समझाया गया है और इस अध्ययन में अहिंसा को अपने जीवन में कैसे उतार लेना यह बताया गया है। तीसरी बात यह है कि अहिंसा का स्वरूप इतना व्यापक है कि अन्य व्रतों का भी इसमें अन्तर्भाव हो जाता है। इसीलिए व्रतों में प्रथम स्थान अहिंसा को दिया गया है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हुआ कि अहिंसा में ही विश्व-शान्ति का मूल है। अहिंसा से ही सब प्राणी सुरक्षित और निर्भय रह सकते हैं। अहिंसा ही संसार के सुख और कल्याण की जननी है। अहिंसा ही संसार में शान्ति का विशद साम्राज्य स्थापित करके दुनिया के लिए आशीर्वाद रूप हो सकती
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