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द्वितीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
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द्वेष और माया लोभ रूपराग ये दोनों संसार के मूल कारण-विषयों के भी कारण हैं । राग-द्वेष के कारण ही विषय विषतुल्य है। तो यह सिद्ध हश्रा कि विषय संसार के कारण हैं और संसार के कारण रागद्वेष विषयों के कारण हैं । विषय ग्रहण करने से विषयी का भी ग्रहण होता है इसलिये यह भी अर्थ होता है कि जो गुणों में (विषयों में) वर्तमान है वह मूलस्थान कषायादि में वर्तमान है और जो कषायादि में वर्तमान है वह विषयों में वर्तमान है। यह शब्दादिक विषय और कषायमूलक संसार का कार्य कारण सम्बन्ध दिखलाया गया है। अब यह बताते हैं कि विषयानुरागी प्राणी विषयों को प्राप्त करने की आकांक्षा से अथवा प्राप्त विषयों के नष्ट हो जाने के दुःख से शारीरिक और मानसिक वेदनाओं से सदा संतप्त रहा करता है । वह रागद्वेष रूप प्रमादसे सदा कर्मबन्धन करता रहता है । राग के बन्धन में पड़कर यह सममता है कि माता-पिता, पत्नी, पुत्र, पुत्री, बहिन, चाचा, मामा, श्वसुर साला इत्यादि मेरे हैं और मैं उनका हूँ। मेरे हाथी घोड़े, मेरे ऊंचे २ मकान, मेरे कुबेर के समान सोने चांदी के पहाड़, मेरी दौलत, मेरा खानपान, मेरे वस्त्र; इस प्रकार यह प्राणी सभी में ममत्व बुद्धि करता हुआ अनेकों पापकारी कर्म करता है
और मरणपर्यंत उसका यही क्रम चालू रहता है । कुटुम्बियों में तथा धनदौलत में मरणपर्यन्त श्रासक्त होता हुआ यह प्राणी भयंकर कर्मों का बन्धन कर लेता है । प्राणी बकरी के समान मे मे ( मेरा मेरा) करता है और कालसिंह (मृत्य) आकर उसे धर दबाता है "पुत्रा मे, भ्राता मे, स्वजना मे गृहकलत्रवर्गा मे । इति कृतमेमे शब्दं पशोरिव मृत्यर्जनं हरति"
परशुराम ने अपने पिता के अनुराग से और पिता के नाशक वैरी पर द्वोष के कारण सात बार क्षत्रियों का नाश किया । सुभूम ने इसका बदला लेने के लिए इक्कीसवार ब्राह्मणों का विनाश किया। अपनी स्त्री के कहने से चाणक्य ने नंद वंश का नाश किया। कंस के मारे जाने पर उसका श्वसुर जरासंध अपने बल का अभिमान करके कृष्ण से लड़ा और मारा गया। उपरोक्त दृष्टान्तों से यह स्पष्ट होता है कि मोहासक्त प्राणी कुटुम्बी और धन दौलत के मोहक मायाजाल में पड़कर उनके निमित्त भयंकर से भयंकर कर्म करता हुआ भी नहीं हिचकता है । और मरणपर्यन्त उसी आसक्ति के बीच में पड़ा हुश्रा कर्मबन्धन करता रहता है।
स्वजनों के रागबन्धन में पड़ा हुआ प्राणी क्या २ अकृत्य करता है सो बताते हैं:
अहो य राम्रोय परियप्पमाणे, कालाकाल समुट्ठाई, संजोगट्ठी, अट्ठालोभी, श्रालपे सहसाकारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो - संस्कृतच्छाया-अहश्च रात्रिच्च परितप्यमानः, कालाकालसमुत्थायी, संयोगार्थी, अर्थालोभी, आलुम्पः सहसाकारः, विनिविष्टचित्तः, अत्र शस्त्रम् पुनः पुनः ।
शब्दार्थ-अहो य रामो य=रातदिन । परियप्पमाणे परिताप पाता हुआ। कालाकालसमुट्ठाई-काल अकाल का विचार नहीं करता हुआ । संजोगट्टी कुटुम्ब और धन में लुब्ध बना हुआ । अट्ठालोभी धन का लालची । आलुपे लूट खसोट मचाने वाला । सहसाकारे= बिना विचारे (निर्भयरूप से ) विणिविट्ठचित्ते=विषयों में चित्त लगाकर । एत्थ सत्थे पृथ्वीकाय आदि जन्तुओं में शस्त्र का प्रयोग करता है । पुणो पुणो बार-बार ।
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