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द्वितीय अध्ययन षष्ठ उद्देशक ]
१९१ .
जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिन्नमुदाहरंति इह कम्मं परिन्नाय सव्वसो।
संस्कृतच्छाया—यदुःखं प्रवेदितमिह मानवानां तस्य दुःखस्य कुशलाः परिज्ञामुदाहरन्ति । इह कर्म परिज्ञाय सर्वशः ( श्रास्रवद्वारेषु न वर्तेत )
शब्दार्थ-इह इस संसार में । माणवाणं मनुष्यों के लिए । जं दुक्खं जो दुख या दुख के कारण । परेइयं कहे गए हैं । तस्स-उन । दुक्खस्स दुखों के कारणों से छूटने के लिए। कुसला कुशल साधक । परिन्नमुदाहरन्ति–ज्ञ-प्रत्याख्यान-परिज्ञा द्वारा उनका त्याग करते हैं । इह इस प्रकार । कम्मं दुख के कारण कर्मों को । परिन्नाय जानकर । सव्वसो सर्वथा तीनकरण तीनयोग से आस्रव द्वारों में प्रवृत्ति न करे। अथवा सव्वसो सब प्रकार का ज्ञान करके ही उपदेश दे।
भावार्थ हे जम्बू ! इस संसार में ज्ञानी पुरुषों ने मनुष्यों के लिए जो दुख उत्पन्न होने के कारण बताये हैं उन कारणों को कुशल साधक ज्ञ-परिज्ञा द्वारा जानता है और प्रत्याख्यान-परिज्ञा द्वारा उनका त्याग करता है । ये दुख अपने किये हुए कर्मों के फलरूप हैं ऐसा जानकर आस्रवद्वारों में प्रवृत्ति न करे । अथवा कर्मों को भलीभांति जानकर और सब प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर अन्य को उपदेश दे।
विवेचन-इसके पूर्व-सूत्र में न्यायमार्ग का कथन किया गया है। न्यायमार्ग को जान लेने के पश्चात् उसको अङ्गीकार किया जा सकता है । वस्तु के रहस्य को समझने से तद्विषयक उचित्त प्रवृत्ति या या निवृत्ति करने का कार्य कथञ्चित् सरल बन जाता है । जिसने तीर्थङ्कर द्वारा प्ररूपित न्यायमार्ग का निश्चय कर लिया है वह उसे श्रादरने के लिए अवश्य प्रयत्नशील होगा और आर्य-तीर्थकरों ने जो दुखों के कारण बताये हैं उनसे मुक्त रहने का प्रयत्न करेगा।
परम कारुणिक प्राप्त पुरुषों ने सांसारिक प्राणियों को निरन्तर दुख की भट्टी में कोयले की नाई जलते हुए देखकर तथा दया से आर्द्र बनकर संसार के प्राणियों को दुख मुक्त होने के उपाय बताए हैं। उन्होंने दुखों के कारणों को समझ कर दुख से पिण्ड छुड़ाने के लिए उन कारणों का परित्याग करने का फरमाया है। जिस प्रकार कुशल वैद्य रोग की औषधि देने के पहिले यह निदान करता है कि इस रोगोत्पत्ति का कारण क्या है ? बिना निदान के औषधि हितकर नहीं होती। निदान करने के बाद वह रोगों को हटाने के लिए औषधि देता है और रोगोत्पत्ति के कारणों से दूर रहने के लिए पथ्यादि कहता है। इसी प्रकार प्राप्त-पुरुषों ने सबसे पहिले दुखों का निदान किया और बतलाया कि इन इन कारणों से दुखरोग की उत्पत्ति हुई है। अगर इस रोग से मुक्त होना चाहते हो तो पहिले दुखों के इन कारणों का परित्याग करो तभी दुख से मुक्त हो सकोगे । आप्त-पुरुषों के द्वारा कहे गये दुखों को या दुख के कारणों को समझ कर जो कुशल साधु उन कारणों का परित्याग करता है वह दुख से मुक्त हो जाता है । कारणों की निवृत्ति हो जाने से कार्य की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। जब रोग के कारण मिट जाते हैं तो
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