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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
है उधर रात और दिन रूपी चोर उसके श्रायु-धन में से प्रतिदिन कुछ हरण कर लेते हैं । प्राणी का प्रयत्न चालू रहता है तो मृत्यु का प्रयत्न भी जारी रहता है । आखिर परिमित आयु का अन्त आ जाता है परिमित संकल्प ज्यों के त्यों खड़े रह जाते हैं। मृत्यु यह चिन्ता नहीं करती कि अमुक के संकल्प पूरे हुए या नहीं ? वह तो सभी को स्थिति पकने पर अपने मुख में रख लेती है ।
जो प्राणी आशा और लालसा के द्वारा प्रसित हैं वे गुलाम और पराधीन हैं। वे अपनी आशाओं तृप्त करने के लिए समस्त संसार की दासता भी प्रसन्न होकर करते हैं । परन्तु जिन धीर-वीर पुरुषों ने शा को अपनी दासी या चेरी बना ली है उनका दासत्व करने के लिए सारा संसार तत्पर होता है । प्रस्तुत सूत्र में भोगों की आशा और भोगों के संकल्प निषिद्ध किये गये हैं क्योंकि प्रसंग भोगों की निवृत्ति का चल रहा है । उपलक्षण से संकल्प और आशा मात्र का त्याग समझना चाहिए। जिस प्रकार एक छोटा-सा कांटा शरीर में चुभ जाने से वेदना देता है और उसके कारण चित्त में शान्ति और अस्थिरता पैदा हो जाती है उसी प्रकार ये आशाएँ और ये संकल्प शल्य के समान हैं और हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाले हैं । जब तक ये शल्य हृदय में बने रहते हैं वहाँ तक जीवन में शान्ति का अंश भी उपलब्ध नहीं हो सकता, जीवन की धारा में सदृशता नहीं आ सकती और जीवन निश्चिन्त नहीं बन सकता है । इसीलिए सिद्धान्तकार फरमाते हैं कि आशा और संकल्प के शल्यों को हृदय में स्थान देकर क्यों अपने हाथों दुखी बन रहे हो ? क्यों जीवन को अशान्त और कलुषित बनाते हो ? क्यों आशा के मोहक भुलावे में पड़कर आत्मा को अपने शाश्वत सुखों से वंचित रखते हो ? अगर जीवन में शान्ति सुधा का आस्वादन करना चाहते हो तो आशा और संकल्पों का त्याग करो। यही संतोष और शान्ति की कुब्जी है ।
अपरिमित आशा और संकल्पों में से प्रत्येक की सिद्धि सर्वथा असंभव है अतः तृप्ति बनी रहती है और वह तृप्तिजन्य दुख हमेशा हृदय को जलाता रहता है यह निम्न सूत्र में प्रतिपादित करते है:
जेण सिया, तेण णो सिया । इणमेव नावबुज्झति जे जगा मोहपाउडा ।
संस्कृतच्छाया - येन स्यात् तेन नो स्यात् । इदमेव नावबुध्यन्ते ये जनाः मोहप्रावृत्ताः ।
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शब्दार्थ- - जेण - जिस धनादि से । सिया = भोगोपभोग हो सकता है । तेण उसी धन से | णो सिया=भोगोपभोग नहीं भी होता है । जे जो । मोहपाउडा=अज्ञान से श्रावृत्त हैं । जणा=त्रे मनुष्य | इणमेव–इस तत्व को । नावबुज्यंति नहीं समझते हैं ।
भावार्थ - जिस धनादि सामग्री से भोगोपभोग हो सकता है उसी धनादि सामग्री के होने पर भी उसका भोगोपभोग नहीं भी हो सकता है ( क्योंकि संग्रहवृत्ति के कारण कई व्यक्ति उपलब्ध सामग्री का भोगोपभोग नहीं करते हुए मात्र उसका संग्रह ही करते हैं ) ये प्राणी मोह की आंधी से बने हुए हैं वे इस सीधी और सरल बात को भी नहीं समझते हैं यही विश्व का एक अद्भुत आश्चर्य है ।
विवेचन - संकल्प - विकल्पों के जाल में पड़ा हुआ प्राणी अनेक प्रकार के मनोरथ करता है और उन्हें पूर्ण करने के लिए मिथ्या प्रयास करता है लेकिन उसके प्रयास निष्फल होते हैं यही प्रस्तुत सूत्र में
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