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[प्राचाराङ्ग-सूत्रम्
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामैकं शरणं व्रज । हे अर्जन ! सब कुछ छोड़कर ईश्वरार्पण हो जा। मेरी ('ईश्वर की ) शरण में आ जा। इससे तू सब पापकर्मों से मुक्त हो जायगा।
जब तक हृदय में अभिमान का शल्य शेष है वहाँ तक अर्पणता पाती ही नहीं है। दुनिया का सामान्य मनुष्य भी अपने आपको "मैं कुछ हूँ" यह समझता है । जब यह अहंवृत्ति दूर हो तब अर्पणता श्रा सकती है। जब तक अहंवृत्ति है वहाँ तक अर्पणता केवल ढोंग है। इससे कोई यह न समझ ले कि इसमें व्यक्तित्व का नाश हो जाता है। अर्पणता से व्यक्तित्व का नाश नहीं लेकिन व्यक्तित्व का सच्चा भान प्रकट होता है । उसे यह ज्ञान हो जाता है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति इस संसाररूपी महासागर का एक अविभक्त जलबिन्दु है । जलबिन्दु को समुद्र में मिलने से दुख नहीं होता लेकिन वह इस अर्पणता में ही सुख और महत्त्व मानता है। जिन्हें व्यक्तित्व का भान नहीं है लेकिन व्यक्तित्व की ओट में जो अभिमान रखते हैं वे अपने आपको महान् समझ कर अलग रहना चाहते हैं। उनका अहत्व जड़ चीजों से जन्म लेता है इसलिए यह शल्य का काम करता है। इसका त्याग करना चाहिए । अहंवृत्ति से प्रेरित होकर मनुष्य अपनी बुद्धि का दम भरता है और जो चीजें उसकी बुद्धि में न आईं उसका सर्वथा त्याग-निषेध करने का साहस कर बैठता है । वह यह नहीं जानता कि उसका ज्ञान सम्पूर्ण नहीं है। वह अपने जिस ज्ञान पर अभिमान करता है, जिन इन्द्रियों पर वह इतराता है वह सब अपूर्ण हैं। इन्द्रियों से परे ऐसी बहुतसी बस्तुएँ हैं जिनका उसे ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियों और मन के ज्ञान की परिधि अति संकीर्ण हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य अपनी बुद्धि का दम भरे यह कहाँ तक ठीक है ? मनुष्य का इन्द्रियजन्य ज्ञान विशाल महासागर के एक जलन्बिदु के समान भाग को भी नहीं जानता। फिर भी मनुष्य इतना गर्वीला हो जाता है कि अपनी अक्षमता को अस्वीकार करने के बदले एक जलकरण को ही सागर कहने लगता है
और उस बिन्दु के अतिरिक्त और अपार जलराशि के अस्तित्व का अपलाप कर देता है क्योंकि वह उसके ज्ञान से परे है। ऐसे मनुष्य कूप-मण्डूक हैं। साधक को ऐसी अहंवृत्ति का त्याग करना चाहिए।
जो व्यक्ति श्रात्म-कल्याण के इच्छुक हैं उन्हें मर्वज्ञ तीर्थकर देव की आज्ञा के प्रति पूर्ण अर्पणता कर देनी चाहिए। उनकी आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने में उनकी आज्ञा की अर्पणता है। इसलिए जो साधक संयम में लीन होकर कर्म के स्वरूप को जानकर श्रमण-पर्याय अङ्गीकार करके कर्म को दूर करता है वह आज्ञा की आराधना करता है। महापुरुषों के उपदेशों का पालन ही उनकी आज्ञा की आराधना है। समझपूर्वक क्रिया करने से ही कर्म-क्षय होता है यह भी इससे ध्वनित होता है।
श्राज्ञा की आराधकता का कथन करते हुए सूत्रकार एकचर्चा की चर्या करते हैं इसका कुछ अाशय है। प्रतिमाधारी मुनि नियत काल के लिए अकेले विचरते हैं । पहिले एकलविहार को निषिद्ध कह दिया है। प्रतिमाधारी की एकल चर्या आज्ञा बाहर नहीं है यह सूचित करने के लिए सूत्रकार ने यहाँ यह एकचर्या कही है । जो साधक वृत्ति एवं प्रकृति की स्वच्छंदता से एकचर्या करते हैं वे ही दोष के पात्र हैं। प्रतिमाधारी मुनि क्रिया की उत्कृष्टता के लिए और प्रतिमा की विधि को पूर्ण करने के लिए एकचर्या करते हैं। जो एकचर्या दोषजन्य एवं स्वच्छंदताजन्य है वह दूषित है। प्रतिमाधारियों की एकचर्या प्रशंसनीय है। प्रतिमाधारी मुनियों का प्राचार भी सूत्रकार बताते हैं कि वे शरीर से बिल्कुल निरपेक्ष होते हैं। वे उच्चनीच के भेद के बिना गृहस्थ कुलों से निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं और निर्दोष रीति से ही उसका
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